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जहाँ कभी वली का मज़ार था

jahan kabhi wali ka mazar tha

सौम्य मालवीय

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सौम्य मालवीय

जहाँ कभी वली का मज़ार था

सौम्य मालवीय

और अधिकसौम्य मालवीय

    (जहाँ कभी वली का मज़ार था, आज वहाँ सड़क का डिवाइडर है…कोई आज भी फूल छोड़ जाता है वहाँ… अहमदाबाद पुलिस मुख्यालय के सामने…शाहीबाग़ अंडरब्रिज से ठीक पहले…ये कविता वहीं से लौटकर…)

    वली के मज़ार पर एक सुबह

    ---

    वली

    कोई फूल छोड़ जाता है वहाँ

    जहाँ कभी तुम्हारा मज़ार था

    डिवाइडर की रूखी, दानेदार, आवारा धूल में

    तेज़ रफ़्तार गाड़ियों की हवा में काँपते फूल…

    कोई रम्ज़ नहीं है इनमें

    ये तुम्हारे लिए ही हैं

    जैसे कोई चीज़ किसी के लिए होती है

    क्या कहूँ मैं इस चुपरंग महब्बत, ख़ामोश इबादत, अटूट अक़ीदे को

    यही तो नाम-सिमरन है, कृष्ण-भजन,

    वही वैष्णव-जन जिसे पराई-पीर से वाबस्ता होना था!

    कौन है वो रहमान, कौन हनुमान!

    जो निभा रहा है भक्ति और आशिक़ी की रवायत को!

    कोई भी हो

    ये फूल तुम्हें ही निवेदित हैं

    शायद स्वयं निवेदन ही हो

    क्षणिक चक्रवातों के मध्य अमरजीवा लौ सा जलता हुआ

    शीरीं ज़बान के शहद से भीगी पंखुड़ियाँ

    रात के टूटे तारे-कुछ इलायची दाने

    माटी में सूखा थोड़ा सा तेल

    उम्मीद के इतने से असबाब!

    ज़िंदा रहती हैं बचाई हुई चीज़ें यूँ ही

    एक विनयशील साहस के साथ

    उन्मादी ग़ुबारों के गहन में, आला भर उजास

    सड़क के पथरीले स्याह में, एक गुलाबी आस

    वली, कौन है वो?

    सच ही कहते हो तुम, छोड़ दें इस बात को

    छोड़ दें तुम्हें भी वली!

    याद रखें, यदि हो सके तो याद रखें इस नुमाइंदगी को

    पुरक़हर ट्रैफ़िक के साये में

    इस क़स्द-ए-ज़ियारत को याद रखें

    ताकि कल,

    दूर-कल नहीं, यहीं-नज़दीक कल!

    तारीख़ के आईने में

    कम-अज़-कम

    अपना चेहरा तो पहचान सकें!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्य मालवीय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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