बहनें

bahnen

असद ज़ैदी

असद ज़ैदी

बहनें

असद ज़ैदी

कोयला हो चुकी हैं हम बहनों ने कहा रेत में धँसते हुए

ढक दो अब हमें चाहे हम रुकती हैं यहाँ तुम जाओ

बहनें दिन को हुलिए बदलकर आती रहीं

बुख़ार था हमें शामों में

हमारी जलती आँखों को और तपिश देती हुई बहनें

शाप की तरह आती थीं हमारी बर्राती हुई

ज़िंदगियों में बहनें ट्रैफ़िक से भरी सड़कों पर

मुसीबत होकर सिरों पर हमारे मँडराती थीं

बहनें कभी सांत्वना पाकर बैठ जाती थीं हमारी पत्नियों के

अँधेरे गर्भ में बहनें पहरा देती रहीं

चूल्हे के पीछे अँधेरे में प्याज़ चुराकर जो हमें चकित करते हैं

उन चोरों को कोसती थीं बहनें

ख़ुश हुई बहनें हमारी ठीक-ठाक चलती नौकरियों में भरी

संभावनाएँ देखकर

कहनें बच्चों को परी-दरवेश की कथाएँ सुनाती थीं

उनकी कल्पना में जंगल जानवर बहनें लाती थीं

बहनों ने जो नहीं देखा उसे और बढ़ाया अपने

आन की पूँजी

बटोरते-बटोरते।

‘यह लकड़ी नहीं जलेगी किसी ने

यों अगर कहा तो हम बुरा मान लेंगी

किसलिए आख़िर हम हुई हैं लड़कियाँ

लकड़ियाँ चलती हैं जैसे हम जानती हैं तुम जानते हो

लकड़ियाँ हैं हम लड़कियाँ

जब तक गीली हैं धुआँ देंगी पर इसमें

हमारा क्या बस? हम

पतीलियाँ हैं तुम्हारे घर की भाई पिता

'माँ देखो हम पतीलियाँ हैं'

हमारी कालिख धोई जाएगी, नहीं धोया गया हमें तो

हम बनकर कालिख

बढ़ती रहेंगी और चीथड़े

भरती रहेंगी शरीर में जब तक है गीलापन और स्वाद

हम सूखेंगी अपनी रफ़्तार से

‘हम सूख जाएँगी

हम खड़खड़ाएँगी इस धरती पर सन्नाटे में

मोखों में चूल्हों पर दोपहरियों में

अपना कटोरा बजाएँगी हम हमारा कटोरा

भर देना—मोरियों पर पानी मिल जाता है कुनबेवालो

पर घूरों पर दाना नहीं मिलता

हमारा कटोरा भर देना

‘हम तुम्हारी दुनिया में मकड़ी भर होंगी

हम होंगी मकड़ियाँ

घर के किसी बिसरे कोने में जाला ताने पड़ रहेंगी

हम होंगी मकड़ियाँ धूल भरे कोनों की

हम होंगी धूल

हम होंगी दीमकें किवाड़ों की दरारों में

बक्से के तले पर रह लेंगी

नीम की निबौलियाँ और कमलगट्टे खा लेंगी

हम रात झींगुरों की तरह बोलेंगी

कुनबे की नींद को सहारा देती हमीं होंगी झींगुर।’

कोयला हो चुकी हैं हम

बहनों ने कहा रेत में धँसते हुए

कोयला हो चुकीं

कहा जूतों से पिटते हुए

कोयला

सुबकते हुए

बहनें सुबकती हैः ‘राख हैं हम

राख हैं हम : गर्द उड़कर बैठ जाएँगी सभी के माथे पर

सूखेंगी तुम्हारी आँखों में ग्लनि की पपड़ियाँ

गरदन पर तेल की तह जमेगी, देखना!’

बहनें मैल बनेंगी एक दिन

एक दिन साबुन के साथ निकल जाएँगी यादों से

घुटनों और कोहनियों को छोड़कर

मरती नहीं पर वे, बैठी रहती हैं शताब्दियों तक घरों में

बहनों को दबाती दुनिया गुज़रती जाती है जीवन के

चरमराते पुल से परिवारों के चीख़ते भोंपू को

जैसे-तैसे दबाती गर्दन झुकाए अपने फफोलों को निहारती

एक दिन रास्ते में जब हमारी नाक से ख़ून निकलता होगा

मिट्टी में जाता हुआ

पृथ्वी में जाता हुआ

पृथ्वी की सलवटों में खोई बहनों के खारे शरीर जागेंगे

श्रम के कीचड़ से लिथड़े अपने आँचलों से हमें घेरने आएँगी बहनें

बचा लेना चाहेंगी हमें अपने रूखे हाथों से

बहुत बरस गुज़र जाएँगे

इतने कि हम बच नहीं पाएँगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : सरे-शाम (पृष्ठ 34)
  • रचनाकार : असद ज़ैदी
  • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
  • संस्करण : 2014

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