तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज
talabandi mein kisi agyat ki khoj
एक
उतरती धूप और सिहरती हुई पत्तियों ने
कहा कुछ मद्धम-मद्धम
कबूतरों की शरारती आँखों ने
और कोयल की कुहू कुहू ने भी कहा
कि तुम्हारी ख़ामोश मृत्यु के शोकगीत
लिखे जाएँगे इसी तरह से
तुम्हारी शोरगुल से भरी इस बेतरतीब दुनिया में
वे साँस लेते हैं बंद कमरों में
एक ख़ालीपन की ऊब में
मृत्यु के गलियारे में जमा ज़रूरतों
और अर्थहीन वस्तुओं के पैम्फ़्लेट पलटते
इस उदित होते अस्त होते सूरज को देखो
भूख तुम्हें बताएगी
कुछ आदिम सच्चाइयों के बारे में
सुनसान पड़ी सड़कों के कुछ और भी अर्थ हो सकते हैं
जो तुम्हें समझ में आएँगे
क्रूरताओं के घूरे पर
कोई थकान उतरी पड़ी होगी
और कुछ मर्मस्थल बचे हुए होंगे भूले-बिसरे
रूई का एक फाहा उड़ता चला जाएगा
इस पूरे संसार पर
रिकॉर्ड रूम से
सेमिनारों से
वीडियो कॉन्फ्रेंसों से
परे धकेले जा सकते हैं
तुम्हारी उपलब्धियों के बखान और
गलाकाट स्पर्धाओं के उद्बोधन
ग़ायब हो चुके सफल मनुष्यों की खोपड़ियाँ
एक तरफ़ रख दी जाएँगी
उनके भीतर भरे हुए
जानकारियों के भंडारों का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा
प्रेतों की तरह से खड़े होंगे
बंद पड़े शीशे के शो-रूमों में
वैक्यूम क्लीनर,
कारों के नए मॉडल,
फ्रिज
और वातानुकूलित यंत्र
कंप्यूटर के की-बोर्ड पर उँगलियाँ चल रही होंगी
पर स्क्रीन पर कुछ नहीं आएगा
कोई भोलापन कहेगा कि यक़ीन करो मुझ पर
सुंदरता अभी भी टहल रही है
अंगडाई लेते कुत्तों के झुंड में
नो पार्किंग बोर्डों के नीचे से
लौट रहा होगा कोई अनाम वक़्त
बाज़ारों में
बंद शॉपिंग कॉम्पलेक्सों के व्यर्थ सूचना-पट्टों से
कुछ मत कहो कुछ मत कहो
उदास रोते हुए विवरण होंगे
एक लालची दुनिया की चिपचिपाहट
मुरझाए हुए गुलदस्ते, बर्गर-किंग,
ऑनलाइन पेमेंट के डेबिट कार्ड
भयभीत देहों से झर रहा होगा—
जिए हुए जीवन का पलस्तर
रोबदार समझी गई हर आवाज़ में
भरी होगी अनिश्चय की कोई सड़ाँध
और झुर्रियाँ सभ्यता की भी हो सकती है
इससे पहले कभी इतनी साफ़ नहीं देखी होंगी।
बुनियादें हिल रही हैं
बुनियादें हिल रही हैं
कौन? कौन?
कोई नहीं बस एक मौन।
अवरुद्ध हरकतों के पीछे जो अदृश्य है
उसे एक तेज़ चाक़ू की तरह से पढ़ो
कि पहले कब दो फाँक खुल गया था
इस तरह से समय
दो
हर चेहरे पर एक मास्क
हर मास्क के पीछे एक चेहरा
छुप गए सारे हाव-भाव
मुस्कुराहटें
क्रोध
और कातरता
तुमने धरती को भी तो पहना दिया था एक मास्क
छिप गए पहाड़, नदियाँ, चरागाह और जंगल
कई सदियों तक
धूप आई और गई
कई सूर्योदय हुए कई सूर्यास्त
पीढ़ियाँ बीतती गईं
इतिहास के पन्ने पलटते गए
तुम्हारी अवैध संतान की तरह से
तुम्हारा ही एक शत्रु कहीं पल रहा था अनाम
सत्ताधीशों, सेनाध्यक्षों, नगरपिताओं
धनकुबेरों
अब
युद्ध की घोषणाएँ करो
बिगुल बजाओ
प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान
बालकनियों में खड़े दासों से
घंटे-घड़ियाल बजवाओ
भेज दो सेनाओं को
विजय-अभियान पर
पर कहाँ भेजोगे?
किन दिशाओं में?
आखेट-स्थल कहाँ
युद्ध-भूमियाँ कहाँ
पुलवामा कहाँ है
बालाकोट कहाँ है
सिनाई की पहाड़ियाँ कहाँ हैं
ग़ज़ा पट्टी कहाँ है
मैक्सिको की सीमा पर खड़ी
कँटीले तारों की बाड़ कहाँ है
कौन-सी है 'लाइन ऑफ़ डिफेंस'
कौन-सा है अतिक्रमण
शत्रु अदृश्य
निराकार
गति से अधिक तेज़
तिलिस्म की मानिंद सर्वव्यापी
आकार से अधिक सूक्ष्म
छह फ़ुट की सोशल डिस्टेंसिंग
हँसती है एक बेहया हँसी
सारे भूमंडलीकरण पर
स्पर्श में छुपी है मृत्यु
स्पर्श में छिपे हैं अंत
कल किसने देखा है
एक गुड़ी-मुड़ी
सिकुड़ा हुआ वर्तमान
घड़ी की रेंगती सुइयों
सरकती हुई तारीख़ों पर
भोले विश्वासों पर, यक़ीनों पर
मेटल स्क्रीन, सीट बेल्ट, बटन और क़मीज़ के अस्तर पर
और व्यापार समझौतों की दुनिया पर
यह किसका अट्टाहास है?
यह क़ब्र किसके लिए खोदी गई है
यह शव-पेटिका किसके लिए बन रही है
वह जो मरेगा कल या परसों या उसके अगले दिन
वह जो दुनिया का पाँच लाख पाँच सौ पचपनवाँ संक्रामक रोगी है
पर जो अभी ज़िंदा है
तुम्हारे आँकड़ों में
छिन्न-भिन्नताएँ कहती हैं
लिखो हमारे नए इतिहास
तुम्हारे स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन उदास
कारख़ाने बिसूरते हुए
शेयर बाज़ारों से उड़ती हैं धूल
निवेश-सूचियाँ
सीली हुई मिसाइलों की तरह
फुसफुसा कर कहा उन्होंने कल
कि कहीं कोई कूड़ेदान ख़ाली नहीं है
इस दुनिया में
पंख कटे मेघदूतों जैसे ये सारे डेवेलपमेंट प्लान
तुम्हारी मूर्खताओं के स्मारक हैं
वातानुकूलित अधिवेशन-कक्षों से उठे
जो वक्ता
और जाने कब गली के गटर में गिर पड़े।
लंच पर एक सभासद ने कहा दूसरे से सहसा मुड़कर
सभा में आप देर तक कुछ बोल रहे थे
क्या बोल रहे थे
मैं भी तो कुछ बोलना चाहता था
बहस में शरीक भी होना चाहता था
पर राष्ट्रीय संकट की घड़ी है
रात को नींद ठीक से आती नहीं है
किसी ने कहा कि दुनिया हो गई है अनिश्चित
दूसरे ने कहा यह जीवन-संध्या है
तीसरे ने कुछ और कहा
चौथे ने कुछ और
बाक़ी मुँह बाए तबलीग़ी जमातियों की खोज के भड़कीले क़िस्से सुन रहे थे
दुश्मनों की शिनाख़्त हुई
विपदाओं ने रचे नए मुहावरे
कुछ नए शब्द ईजाद हुए
खौलते हुए ख़ून के बारे में
कुछ क़ौमी घृणाओं और लानतों के बारे में
धमकी देता हुआ दहाड़ता था वाशिंगटन में कोई बेचारगी में
हँस पड़ता था बेजिंग में कोई घाघ हँसी
प्रधान सेवक माँगता था राष्ट्र से माफ़ी हर रोज़ एक नई मोहक अदा में
पर कहीं कोई शब्द नहीं था
भूख की किसी अँधेरी गुफा के बारे में
सैकड़ों मील चल पड़े
सिर पर पोटली उठाए
सड़क पर चलते-चलते हुई किसी मृत्यु के बारे में
एक ख़ामोश रुदन अभी पड़ा था अलक्षित।
तीन
चिंतकों ने कहा कि
इस संसार के सारे संकट हैं मनुष्य निर्मित
पर हम पंगु हैं
भाषा में उनकी पहचान अब संभव नहीं
धर्म-जाति-कुल-वंश-देश-भाषा-समाज-हैसियत से परे
अब उनकी पहचान भाषा में समाती ही नहीं
कलाकारों ने कहा कि
आकार–प्रकार दिखाई नहीं देता
शत्रु है अगोचर
वह रूप में अब बँधता नहीं
वह कभी विचारों से उठता है
कभी इरादों से
कभी त्वचा के सूक्ष्म-रंध्रों से
कवि ने कहा कि सारे अतीत राजनीतिक हैं
और वर्तमान भी राजनीतिक है
ऊपर आकाश में चमकता चंद्रमा भी राजनीतिक है
राजनीतिक हैं आकाश, धूप, परछाइयाँ, नदी, पोखर,पहाड़
और आदिवासी भी
ख़ामोशियों में किए गए एकालाप भी राजनीतिक हैं
हम हैं सिर्फ़ एक कच्चा माल उनके लिए
रोग, जीवाणु, औषधियाँ, प्रयोगशालाएँ
सब राजनीतिक हैं
चिल्लाता है कोई ईरान से कोई बल्गारिया से
जो सेफ़्टी किट भेजा गया वह नक़ली है
त्वचा की भी इस तरह से एक राजनीति है
सैनिटाइजर नहीं बचे थे अब
चिंतको, लेखको, कलाकारो, कवियो, बौद्धिको,
तुम अमर रहो
तुम्हारी जन्म-शताब्दियाँ मनाई जाती रहें
पिछले युगों की तरह से निर्विघ्न
तुम्हारी मेज़ों पर
जीवन और मृत्यु के सवाल
जमा रहें सारे शब्दकोश, पैमाने, सूक्ष्मदर्शी यंत्र,
ध्वनियाँ, प्रतिध्वनियाँ, मुहावरे, तर्कों के विश्लेषण
और
कल्पनाएँ भी थोड़ी-बहुत
इस बीच लोग जो रोज़ थोड़ा-थोड़ा ख़त्म होते जा रहे थे
थोड़े-से भोजन, थोड़ी-सी साँसे, थोड़ी-सी नींद
और दस बाई दस की खोलियों आठ-दस ठुँसे हुए लोगों के उदास चेहरों के बीच से
घर की ओर लौटते नंगे पैर थे, भूख और ज़िल्लत की रोटी थी
घर पर छह महीने की बच्चियों को छोड़ आई कुछ नर्से थीं
एक सफ़ाई कर्मचारी गली में झाड़ू लगता हुआ अकेला
इनके आँसू छिप जाते थे सेफ़्टी मास्कों के पीछे
चैनलों पर नाच-गानों के बग़ल में
सलमान ख़ान, कैटरीना कैफ़ और कपिल शर्मा के बग़ल में
रोज़ मरने वालों के आँकड़े
मेरा समय की सबसे बड़ी ख़बर थी
और मृतकों की संख्याएँ
वे रोज़ पहले से ज़्यादा थीं उत्तेजक
रोज़ एक विकराल शोर-शराबे में
मनाया जाता था मृत्यु का महोत्सव एक अलग तरीक़े से
रोज़ एक नई दिलचस्पी का सामान
जुटाया जाता था कितनी मेहनत से
किसी ने कहा कि बहुत कुछ घट रहा है
और कुछ सिद्ध नहीं होता
आकाश अपराधबोध से घिरा है
'इतिहास के अंत और सभ्यताओं के संघर्ष' की घोषणा वाली वह किताब
धूल चाट रही है कहीं
और एक वायरस खोजता फिर रहा है सैमुअल हटिंग्टन की क़ब्र को
वुहान से मिलान तक
न्यूयॉर्क से ईरान तक
समय के इस अज्ञात को कहाँ पकड़ा जा सकता था?
कहाँ था उसका ठिकाना?
कौन-से पते और कौन-से पिन कोड पर?
एक वरिष्ठ कवि कह गया कि संसार की सभ्यताएँ
अपने अंतिम दिन गिन रही हैं
दूसरा वरिष्ठ कवि जाते-जाते कह गया—
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो
मेरी हड्डियों में
मैं अपने वरिष्ठ कवियों के अस्थि-कलशों को स्पर्श करना चाहता हूँ
और संसार के सारे संग्रहालय
फ़िलवक़्त लॉकडाउन की घेराबंदी में हैं।
- रचनाकार : विजय कुमार
- प्रकाशन : समालोचन
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