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एक भरम अच्छा जिया

ek bharam achchha jiya

प्रदीप अवस्थी

अन्य

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प्रदीप अवस्थी

एक भरम अच्छा जिया

प्रदीप अवस्थी

और अधिकप्रदीप अवस्थी

    मेरे होंठों को छीलकर

    उन्होंने बनाई अपनी हँसी

    चूमकर चूरा-चूरा किया हर बार

    मोहब्बत को

    मैं हँसता था जब उनके साथ

    मेरे कितने हिस्से थे जो रोते थे

    ठीक उसी समय

    उनके ही सामने

    इतने क़रीबी लोगों में

    नहीं होनी चाहिए थीं इतनी दूरियाँ

    कि एक आसमान की ओर देखकर

    उड़ने की बात करे

    और दूसरा कुदाल ढूँढ़ रहा हो

    कि गड्ढा करे एक गहरा

    उसमें जाकर लेट जाए

    और मिट्टी डालने लगे अपने ऊपर

    पूरी शर्मिंदगी से

    ग़लतफ़हमियों का काम है

    कि वे क़त्ल करती रहें रोज़

    वर्षों तक

    भविष्य के अँधेरों से अनजान

    वे सब जो प्यार में थे उन्होंने

    एक भरम अच्छा जिया।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रदीप अवस्थी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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