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माया पर कविताएँ

‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’—भारतीय

दर्शन में संसार को मिथ्या या माया के रूप में देखा गया है। भक्ति में इसी भावना का प्रसार ‘कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम’ के रूप में हुआ है। माया को अविद्या कहा गया है जो ब्रह्म और जीव को एकमेव नहीं होने देती। माया का सामान्य अर्थ धन-दौलत, भ्रम या इंद्रजाल है। इस चयन में माया और भ्रम के विभिन्न पाठ और प्रसंग देती अभिव्यक्तियों का संकलन किया गया है।

देना

नवीन सागर

कल्पित मनुष्य

निकानोर पार्रा

भ्रम

श्रीनरेश मेहता

भ्रम

मुज़फ़्फ़र आज़िम

कच्चे-पक्के रंग

दर्शन बुट्टर

इच्छाओं का कोरस

निखिल आनंद गिरि

भ्रम

आरती अबोध

कर्ता, कर्म, वाक्य

स्टीफन स्पेंडर

यह सिर्फ़ भ्रम है

सुमित त्रिपाठी

एक भरम अच्छा जिया

प्रदीप अवस्थी

असहाय

शुभा

जग रूठे तो रूठे

कृष्ण मुरारी पहारिया

माने हुए बैठे हैं

नंदकिशोर आचार्य

मुलाक़ात

नवीन रांगियाल

भ्रम

श्रुति गौतम

दिल्ली 2020

गिरिराज किराडू

अभी सृजन की प्यास शेष है

कृष्ण मुरारी पहारिया

गिरगिट

उद्भ्रांत

बुद्ध मुस्कराए हैं

हरीशचंद्र पांडे

धुँधलापन

रमाशंकर सिंह

वड्डे लोग

राजकुमार केसवानी

नई संस्कृति

दूधनाथ सिंह

विभूति

कन्हैयालाल सेठिया

संख्या-भ्रम

प्रयागनारायण त्रिपाठी

वहम

संतोष कुमार चतुर्वेदी

भ्रम

केशव

भैंसें

सौरभ कुमार

शीर्षासन

हरि मृदुल

रहस्य-15

सोमेश शुक्ल

पर्दा

जतिन एंड विंग्स

सह-अनुभूति

विश्वंभरनाथ उपाध्याय

तारक मंत्र

ज्ञानेंद्रपति

निन्नानवे का फेर

मैथिलीशरण गुप्त

भरम की भित्ति

गोबिंद प्रसाद

सांत्वना

मैथिलीशरण गुप्त

बहुराष्ट्रीय

पंकज चतुर्वेदी

उनकी बातें

हरि मृदुल

मकड़जाल

पारुल पुखराज

भ्रम से बाहर

प्रदीप जिलवाने

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere