दिल्ली मुझे लगा तुम्हारी तबियत नासाज़ है
दिल की धडकनों का कभी तेज, कभी कमजोर
होना तो यही बताता है न!
मैंने पकड़ी तुम्हारी नब्ज़
तुम्हारा ज्वर पढ़ने को
सौ, एक दो या चार!
अगर तेज चल रही हो तो
तुम ब्लड-प्रेशर की शिकार हो
कम चलोगी तो बीपी की मार में
ग़रीबी का टैग लग जाएगा तुम पर
जो कत्तई नहीं पसंद है तुम्हें
दिल्ली मुझे पता चला है यह
कुछ विश्वसनीय सूत्रों से
जो डाकघर में कार्यरत है
और
अक्सर आती-जाती चिट्ठियों पर
लिखे पिनकोड को बड़ी नफ़ासत से पढ़ते हैं
उनका कहना है कि—
तुम कोड नंबर छः से मुँह
चुराने लगी हो
एक्सटेंशन की बरिश्ता में
पाई जाती हो अक्सर
दरगाह, किले, मकबरे और जामा मस्जिद की
छत के कबूतरों से बतियाना भूल गई हो क्या?
दिल्ली तुम्हारे खून में शर्करा फैलती जा रही है/
तुम ब्लड शुगर और ब्लड प्रेशर की बीमारियों के मारे
अस्पताल में भर्ती हो रही हो/
तुम्हें झटका अधिक सुहाता है न!
ताकि लोग तुम्हें ताकतवर और
अधिक टैक्स अदा करने वाला
एक सीरियस क्न्जयूमर समझ सकें
दिल्ली, तुम्हारे बाशिंदे कहाँ हैं?
कहवाघर में चुप्पी फैली है
प्रेस क्लब की बत्ती गुल हो गई है
दिल्ली तुम नुक्ताचीनी भी बहुत करती हो/
तुम नाज़ुक मिज़ाज हो क्या सच में?
या
हो बीमार हालत में
दिल्ली तुम दिलवालों की हो
—क्योंकि सब दिल के रोगी यहीं बनते हैं
जेहनी तौर पर
या जिस्मानी तौर पर
लोग यहाँ दिल के मरीज़ हैं
हाँ, तुम सच में नाज़ुक मिज़ाज हो दिल्ली
तुम्हारे ख़ून में कोई बफ़र संतुलन नहीं है।
तुम एक्जोटिक पेय की शौक़ीन हो।
दिल जो धड़कता है
डरता है
बंद हो जाए तो मर जाता है
—और
एक शहर के दिल का मरना
किसी आदिम सभ्यता या जनजाति के
लुप्त हो जाने जैसा है।
ऐसा तो नहीं होना चाहिए न!
इसलिए/
दिल्ली का दिल धड़कने दो
कभी तेज, कभी कम
नब्ज़ चल रही है।
शहर ज़िंदा है अभी
धडकनें बढ़ने दो—
ये कुछ दिल और उलझाएगी अभी...
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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