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अँधेरे समय की कविता

andhere samay ki kavita

निवेदिता झा

निवेदिता झा

अँधेरे समय की कविता

निवेदिता झा

मैं लिखना चाहती हूँ

ताकि इतिहास में ये दर्ज़ रहे कि हम तानाशाह के आगे हारे नहीं थे

जब झूठ रचे जा रहे थे और सारे दानिशमंद पर पहरे बिठाए गए

तब भी रौशनाई सूखी नहीं थी।

न्यायधीश जब ज़िरह कर रहे थे

ठीक उसी समय सारे गवाह ख़रीद लिए गए

हवा जो हँसती थी उसे क़ैद कर लिया गया

सूरज को उगने से रोक दिया गया

नील विस्तीर्ण आकाश के आलोक मंडल में अपने पंख फैलाए उड़ रहे

पक्षी पर निशाना साधा गया

जिन स्त्रियों की बलात्कार के बाद हत्या हुई

उनके मेडिकल रिपोर्ट में

कहा गया कि वो एक अदृश्य मौत से मरी

दुनिया के स्कूल में सारे छात्र गूँगे क़रार दिए गए

उन्होंने अपनी प्रेमिकाओं के नाम नहीं पुकारे

नहीं देखा गुलाब को खिलते हुए

धूप को पहाड़ों की पीठ पर चढ़ते हुए

झींगुरों और टीटहरियों की तान सुनते हुए वे बड़े नहीं हुए

घृणा का खारा जल लिए वे

शहरों को लड़ते हुए देखते रहे

नफ़रत को बिकते हुए

वे नहीं सुन रहे थे एक-दूसरे को

उनकी आँखों ने भीड़ में चेहरे पहचानना बंद कर दिया था

औरतों, बच्चों से ताजादम बस्तियाँ

मेहनत से फ़सल उगाते किसान

झूल गए रस्सियों पर

जिन्होंने ये बयाँ दर्ज़ किया

वे सब काल कोठरी में ठूँस दिए गए

वहाँ से भी कविताएँ फूट पड़ीं हैं

स्याही फैल गई है

एक इतिहास रचा जा रहा है।

स्रोत :
  • रचनाकार : निवेदिता झा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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