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दादरा

dadra

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

विंदा करंदीकर

अन्य

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और अधिकविंदा करंदीकर

    शिशिर में

    अंगों को पी जाने वाली आँखों में

    मस्ती का नशा उतर आता है

    अनार की डाली पर का

    अनोखा पंछी

    उड़ते हुए

    बड़ा और बड़ा होता है

    जैसे गालों पर फैलने वाली रंग-छटा;

    ऐसे में तुझे

    दादरे में सम्पृक्त कर

    पीने वाले मेरे होंठ

    छह मात्राओं के होते हैं।

    लंबी प्रतीक्षा के बिना

    वह क्षण नहीं आता

    फिर वासना घनीभूत होती है

    तेरे अधरों का निचला हिस्सा

    बेहोश रहता है,

    और मेरे आकाश की सीमा में

    नहीं बँधता,

    और तब शिशिर

    तेरे होठों की छाया में

    मोर बन कर नाचने लगता है

    आँखें बनती है मयूरपंख।

    तेरा वह अंधकार

    स्तनाकार होता है

    और उसमें भटकने वाले

    तीर्थंकर हाथ मेरे होते हैं;

    ऐसा वह मेरा एकांत भी

    छह मात्राओं का होता है।

    तब उन्मत्त वृषभ-सा

    आता है बसंत

    शिशिर को खदेड़ता हुआ

    पुष्प पराग से भरे रहते हैं

    और हरेक पँखुड़ी

    सहे जाने वाले

    क्षणों की सुगंध से

    महकती है।

    पृथ्वी को निगल जाने वाले

    तेरे नितम्ब

    जब हरी घास पर डोलते हैं।

    तब

    तुम्हारे कौमार्य को

    दादरा के

    दर्द-भरे

    आलिंगन की ज़रूरत रहती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 177)
    • रचनाकार : विंदा करंदीकर
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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