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चाँद और खच्चर

chand aur khachchar

अनुवाद : चंद्रकांत पाटील

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

अन्य

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और अधिकदिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

    चरते हैं हल—जुते चरागाह पर

    अँधेरा समझकर घास प्राणिमात्र...

    रात में भुरभुरा जाता है मेरा ढेला

    आसपास को गँदला करते हुए। लेकिन फिर

    साफ़ हो जाती हैं मेरी आँखें

    देखकर उजियारे चाँद की और अपनी छाया पर मुग्ध

    एक खच्चर को।

    पानी में चाँदनी से रोया हुआ अक्षर

    मछली की सिर्फ़ लहर-सी लकीर बनकर

    तैरता है। मेरे झरते हुए ढेले के

    गँदले आसपास में... ऐसा समय।

    और घास समझकर अपनी छाया को

    खच्चर चाँदनी चर रहा है

    मेरी मिट्टी बैठती है जाकर तह तक

    मछली के झपट्टे की लहर को पकड़ता है

    प्रत्यक्ष अंतरिक्ष का फंदा

    चाँद समझकर मैंने देख ली

    चाँदनी जिसे मुग्ध खच्चर चर रहा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 54)
    • संपादक : चंद्रकांत पाटील
    • रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014

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