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सारस

saras

निकोलाय ज़बोलोत्स्की

अन्य

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और अधिकनिकोलाय ज़बोलोत्स्की

     

    चले छोड़ जो अफ्रीका वैशाख में
    सारस अपने पितृदेश के तटों को
    पंक्तिबद्ध वे दीर्घ त्रिभुज के रूप में
    उड़े जा रहे थे गहरे आकाश पर।

    अपने चाँदी के-से पंख पसारकर
    नभ के उस पूरे विस्तीर्ण वितान में
    उनका नेता अपने लघु जन के लिए
    दिखा रहा था वैभव-घाटी की दिशा।

    पर जब उनके पंखों के नीचे कहीं
    पारदर्शिनी झील एक सहसा दिखी
    तभी एक काला थूथन मुँह फाड़कर
    उठा झुरमुटों में से उनकी ओर को।

    एक किरण ने बेधा पक्षी का हृदय
    लपट उठी, सहसा झपटी, फिर बुझ गई
    और गौरवांवित गरिमा का एक कण
    ऊपर से नीचे हम पर आकर गिरा।

    दो विषाद-से भारी उसके पंख दो
    शीत लहर का आलिंगन करने लगे,
    प्रतिध्वनित कर उस दुख-भरे विलाप को
    सारस का दल छूटा ऊपर की तरफ़।

    विचर रहे नक्षत्र जहाँ हैं बस वहीं
    अपने पाप-कृत्य के प्रायश्चित्त को
    स्वयं प्रकृति ने फिर उनको लौटा दिया
    मृत्यु ले गई थी जो उनसे छीनकर।

    प्राणों का अभिमान, यत्न उत्कर्ष का
    और अडिग संकल्प जूझने के लिए
    वे सारे गुण जिनको पिछली पीढ़ियाँ
    भावी संतति को, युवजन को सौंपतीं।

    और धातु-मंडित उनका नेता उधर
    धीरे-धीरे डूब रहा था अतल में
    और उषा ने मानो उस पर खींच दी
    एक सुनहरी ज्योति-किरण की लीक-सी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 132)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1978

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