बीमार हो तुम

bimar ho tum

अनादि सूफ़ी

अनादि सूफ़ी

बीमार हो तुम

अनादि सूफ़ी

बया के घोसलों पर रीझने वाले

कौवों के घर पसंद नहीं करते

कुछ लोग आदमी को

कीचड़ में घिसटते मेढक से अलग नहीं समझते

उनके लिए मछलियों की रवानी

दिलजोई का सबब-भर हैं,

हम पेड़ की जड़ें पानी में ढूँढ़ते हैं

जबकि नदी के पाँव तो कबके

ख़ून-सनी रंगोलियों में तब्दील हो चुके होते हैं!

पैसों को उसके रंग से पहचानने वाले

फूल वग़ैरह की बात करने वालों पर

एकांत में/किसी कोने में खड़े होकर ख़ूब हँसते हैं

और कठुआ और मंदसौर पर

सोच-समझकर/अलग-अलग समय में

कम या ज़्यादा विलाप करते हैं,

वे बेहद प्रतिभाशाली और व्यावहारिक लोग होते हैं

लेकिन मानवता के कंधे पर

परजीवी कूबड़ की तरह भद्दे लगते हैं!

बिल्लियों से प्यार करने वाले लोग

कबूतरों के अंडे देने पर बहुत दुःखी होते हैं

वे ज़रूरत के हिसाब से

दूसरों के जीने का हक़

और मरने का अध्यात्म तय करते हैं

वे सूरज को एक मजबूर कारिंदे से अधिक नहीं मानते

जिसका काम सिर्फ़ चाँद को चमकाना-भर होता है!

तुम्हारे देवता/तुम्हारा पैग़ंबर

क्रोध करने वाला और बदला लेने वाला है

मैंने प्रेम की बात करके उनका अपमान किया है

तुम मेरी जात पूछकर/अपनी ज़ात बता देना

धर्म ज़िंदा रहे इसलिए/संविधान की शपथ उठाकर

मुझे गोली से उड़ा देना,

पर मुझे फिर से कहीं जीवित देखकर

डरना मत/मैं तो बस अपनी यात्रा पर निकला हूँ!

तुम्हारी विवशता और खीज समझता हूँ मैं

तुम पहाड़ गिरा देते हो

पर घास को रौंद नहीं पाते

तुम बादल बना लेते हो

पर आकाश पर तुम्हारा कोई ज़ोर नहीं चलता

तुम ईश्वर तो गढ़ लेते हो

पर आदमी का रसायन तुम्हारी समझ से परे है

तुम पर सिर्फ़ तरस खाया जा सकता है

तुम बीमार हो,

तुम बहुत बीमार हो!

स्रोत :
  • रचनाकार : अनादि सूफ़ी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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