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बाक़ी बचा कुछ

baqi bacha kuch

सौम्या सुमन

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सौम्या सुमन

बाक़ी बचा कुछ

सौम्या सुमन

और अधिकसौम्या सुमन

    बस्ती के छोर पर

    जंगल के आगे

    आगाह करती तख़्तियाँ लगी थी

    आगे मौत है, हर्गिज़ जाएँ

    एक ज़िद्दी स्त्री

    अपनी बेसुधी में

    हर शाम जाती है

    उस जंगल में दबे पाँव

    जंगल के पत्ते

    बिछुड़े मित्रों की तरह

    मिलते हैं उससे

    वह दामन में समेटती है

    आस-पास बिखरे

    उन तमाम सूखे पत्तों को

    ताकि बिछड़ने का दर्द कमे

    रेत के ऊँचे टीले से

    वह देखती है

    लौटते हुए सूरज को

    अँधेरा होने तलक

    वह देखती है

    किस तरह

    समय बीतता जाता है

    और

    एक उदासी

    आहिस्ता-आहिस्ता

    स्याह करने लगती है

    उन किरणों को

    जो थोड़ी देर पहले

    अपनी मौज़ूदगी में

    आकाश पर बिछा गई थीं

    एक सिंदूरी तिलस्म

    आज भी यक़ीन है उसे

    कि

    एक दिन

    दबी हुई एक गुज़ारिश

    माज़ी के ज़ख़्म

    प्रेम और नफ़रत,

    अपनी अर्ज़ियों में

    फिर से

    उसके पते पर

    लिख जाएगा कोई

    जो

    बरसों पहले

    गया था उसी जंगल में

    जिसके आगे

    आगाह करती तख़्तियाँ लगी थीं

    आगे मौत है, हर्गिज़ जाएँ!”

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्या सुमन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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