Font by Mehr Nastaliq Web

बनारस में नौकायन

banaaras mein naukaayan

लक्ष्मीकांत मुकुल

अन्य

अन्य

लक्ष्मीकांत मुकुल

बनारस में नौकायन

लक्ष्मीकांत मुकुल

और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल

    सुबह की चंचल किरणें छू रही हैं गंगा के बहाव को

    उसके आभा से चमकते हैं बनारस के ऊँचे घाट,

    उत्तरोत्तर सीढ़ियाँ, मार्निंग वॉक करते लोग

    दमकते हैं उस पार के बलुआ रेत

    श्मशान की दहकती लाशों की चिरांध में धुल जाती हैं

    कलरव करते जल पंछियों की चहचहाहट

    नाविक नदी की शाँत देह को त्याग

    ले जा रहा है नाव दरिया की मुख्य धारा में

    मजधार में विचरती है नाव मस्तानी

    जैसे किसी कोमलाँगी के अनछुवे मौलिक पहलुओं को 

    स्पर्श कर रही हों जलधाराएँ

    और वह चिहुँक रही हो हवा के तरंगों के साथ 

    उछलती-कूदती तारिणी-तरूणी-सी

    जल के धरातल से नाव का उठना,

    गिरना झूले-सा आनंद दे रहा है हमें

    कितना अनूठा उदात्त प्रेम के प्रकटीकरण का 

    आभास हो रहा है यहाँ

    मानों पृथ्वी के पहले मानुस हों हम ही

    हमारे लिए ही बनी हो अभी यह धरती, 

    आकाश, नदी, नाव, किनारा सब कुछ 

    नया-नया-सा जीवन, 

    प्रेम, ख़ुशियाँ, मिलन, छुवन...

    चप्पू चलाता माँझी गुनगुनाता है कोई गीत

    जैसे पहली बार नाव खेने गया

    उसका आदिम पुरखा छेड़ा होगा कोई आद्य राग 

    नदी, नाव, पतवार, धार-मजधार, प्रेम,मिलन

    बिछुड़न के दर्दीले स्वर

    गूँज रहे होंगे उसकी ध्वनियों में, जिसमें तप रही होगी

    तूफानों, लहरों, आँधियों से जूझते नाव को

    बचा लेने की तड़प

    मचलती होगी उसके अंतस में और थिरक

    गए होंगे उसके होंठ

    'नदी नाव संयोग' का आनंद उठाते हम नाव सहयात्री

    थिरक रहे थे देखते हुए सुबह की उजास में

    दमकते हुए बनारसी घाटों-मंदिरों के रंग-बिरंगे चित्र

    सुनते हुए तेज़ बहाव को नाव के चीरने से 

    उठती जल ध्वनियाँ

    गुनगुनाते हुए मछुआरों के गीत, 

    जो जाते हैं मछलियाँ मारने जाते हुए

    दशाश्वमेध घाट पर दिखती 

    जीवन के नश्वरता के विरुद्ध!

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY