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नखशिख (चार)

nakhshikh (chaara)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नखशिख (चार)

मलिक मोहम्मद जायसी

नैन बाँक सरि पूज कोऊ। मान समुँद अस उलथहिं दोऊ॥

राते कँवल करहिं अलि भवाँ। घूमहिं माँति चहहिं उपसवाँ॥

उठहिं तुरंग लेहिं नहिं बागा। चाहहि उलथि गगन कहँ लागा॥

पवन झकोरहिं देहिं हलोरा। सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा॥

जग डोलै डोलत नैनाहाँ। उलटि अड़ार चाह पल माहाँ॥

जबहिं फिराव आँगन गहि बोरा। अस वै भँवर चक्र के जोरा॥

सहुँद हिंडोर करहिं जनु झूले। खंजन लुरहि मिरिग जनु भूले॥

सुभर समुँद अस नैन दुइ मानिक भरे तरंग।

आवत तीर जाहिं फिरि काल भंवर तेन्ह संग॥

पद्मावती के बाँके नेत्रों की बराबरी में कोई नहीं है। दोनों जैसे मान का समुद्र उलीचते हैं। लाल नेत्रों में काली पुतलियाँ ऐसी हैं मानों लाल कमल पर भौंरे मँडराते हों। वे सुगंध से मतवाले होकर पहले घूमते हैं और फिर भाग जाना चाहते हैं। वे नेत्र उन मुँहजोर घोड़ों के समान उठते हैं जो बाग़ नहीं मानते और उल्टे होकर आकाश छू लेना चाहते हैं। वे पवन के समान झकझोरते और हिलोरे देते हैं और आकाश तक ले जाकर फिर पृथ्वी पर पटक देते हैं। उन नेत्रों के चंचल होने से सारा संसार विचलित हो जाता है। पल भर में वे भरे हुए भंडार को उलट डालना चाहते हैं। जब वह नेत्रों को फिराती है, ऐसा ज्ञात होता है मानो आकाश को पकड़कर डुबा देगी। ऐसे प्रचंड भँवर-चक्र का जोड़ा उन नेत्रों में है। जब घूमते हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो समुद्र के हिंडोले पर झूल रहे हों, अथवा खंजन क्रीड़ा करते हुए लोटते हों या वे नेत्र ऐसे हैं जैसे भूले हुए हिरनों के नेत्र हों।

स्रोत :
  • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 100)
  • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
  • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
  • संस्करण : 2007

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