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चंद्रमा

chandrma

हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’

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और अधिकहरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’

     

    आँगन में चमके
    या आँचल पर चमके—
    जो पकड़ में न आए वो पारा है चंद्रमा,
    सोलहों कलाओं से
    अदब से, अदाओं से
    नभ की डल झील का सिकारा है चंद्रमा 

    एक

    साँझ खड़ी अहवातिन आँचल में दूध लिए
    गोद छोड़, झींगुर की सीटी पर उछला
    तारों की हमजोली, पीछे-पीछे हो ली
    जुगनू की टिमक बीन लेने को मचला
    छप्पर से होते, मुंडेरों तक बोते
    आश्वासन का बीज ओस बूँदों पर पिघला
    कूल पर कगारों पर, पेड़ पर पहाड़ों पर 
    चीरकर चिनारों का नील चीर निकला
    थपकी-सा गाल पर
    कि, चुंबन-सा भाल पर
    किलक-फूटा दूध का फुहारा है चंद्रमा
    इस रुख से गोला
    उस रुख से अधगोला
    यह, मुन्ने की स्लेट का पहाड़ा है चंद्रमा 

    दो

    पोखर पर खड़ी उस कुमुदनी से भूल हुई
    रूप देखकर, आपा खो बैठी भोली
    बैठी उदास, खुली, खिल गई सहास
    पंख पर परागों की सज चंदन-रोली
    एक पवन झूमा-जो चुपके मुख चूमा—
    तो, हर धड़कन सिंधु की लहर जैसी हो ली
    आस सजी डोली, विश्वास मची होली
    जी, ब्रज का फागुन और बरसाने की होली।
    घूमे गलियारा
    अगुवारा, पिछवाड़ा
    ब्रजमोहन-सा प्यारा, आवारा है चंद्रमा,
    सोमरस उलीचे
    हर तन से मन खींचे
    और खिड़की पर आँख का इशारा है चंद्रमा

    तीन

    दूध का समुद्र है उफान पर, चढ़ान पर
    धोके मुख म्लान, चाँदनी नहान कीजिए
    होइए अगस्त, सोखिए सुधा समस्त
    चुग, चिनगी अँजोर की चकोर ध्यान कीजिए खेत-खलिहान पर, मोड़ पर, ढलान पर
    जहाँ-जहाँ जी करे, उठाके प्याला पीजिए
    पीजिए सो पीजिए, पिला के सुख लीजिए कि छाया की भिखारिनों को पुण्यदान दीजिए
    चंद्रमौलि, प्यारा
    शिव का रतन दुलारा
    प्रस्रवित मरण-मुख, जीवन-धारा है चंद्रमा
    कबिरा की काशी
    भी, पढ़े उलट बाँसी
    कि, 'मगहर' के माथ 'लहरतारा' है चंद्रमा!

    चार

    सन्नाटे पर सवार तीसरा पहर, पहुँचा
    थमा-थमा शोर है, जवानी के जोर का
    चेहरे पर दर्प की जगह, गहरे दाग़ उगे
    छाती पर थाती है दर्द अब चकोर का; 
    सत्ता के शीषमहल पर लाली ऊषा की
    भेद खोल गई किसी गुपचुप गँठजोड़ का
    'शह' से जो चला 'मात' पर आकर बिछल गया
    चौसर की गोटी है चंदा यह भोर का।
    आँसू-सा खारा
    एकाकी बनजारा 
    रे, सर्वजीत या कि सर्वहारा है चंद्रमा
    मलमल का आदी
    ओढे सफ़ेद खादी
    जो कलतक था गीत आज नारा है चंद्रमा!

    पाँच

    भोग की तृषा पाले, जोगी बन गया चाँद 
    संगिनी सिसकती है, बनकर संन्यासिनी
    बोली में व्यंग्य-बाण, भर-भरकर छोड़ रही
    चुटकी भर सेंदुर पर पुरवा अनुरागिनी
    सत्य का न झोंका सुंदर से बर्दाश्त हुआ
    शिव की कल्पना ही अंतः पुर वासिनी
    मृदुता पर प्रभुता का कसा कठिन पंजा तो
    ढाल बनी यामिनी, निढाल हुई चाँदनी
    बहुमत का मारा
    क़िस्मत का दुत्कारा
    कितना हारा-हारा, बेचारा है चंद्रमा;
    खग जय-जयकार करे
    जगत समाचार पढ़े
    सूरज का दैनिक, हरकारा है चंद्रमा
    नभ की डल झील का सिकारा है चंद्रमा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए सतीश नूतन द्वारा चयनित

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