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नौकर

naukar

अनु बंद्योपाध्याय

अन्य

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और अधिकअनु बंद्योपाध्याय

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    आश्रम में गांधी कई ऐसे काम भी करते थे जिन्हें आमतौर पर नौकर-चाकर करते हैं। जिस ज़माने में वे बैरिस्टरी से हज़ारों रुपए कमाते थे, उस समय भी वे प्रतिदिन सुबह अपने हाथ से चक्की पर आटा पीसा करते थे। चक्की चलाने में कस्तूरबा और उनके लड़के भी हाथ बँटाते थे। इस प्रकार घर में रोटी बनाने के लिए महीन या मोटा आटा वे ख़ुद पीस लेते थे। साबरमती आश्रम में भी गांधी ने पिसाई का काम जारी रखा। वह चक्की को ठीक करने में कभी-कभी घंटों मेहनत करते थे। एक बार एक कार्यकर्ता ने कहा कि आश्रम में आटा कम पड़ गया है। आटा पिसवाने में हाथ बँटाने के लिए गांधी फ़ौरन उठकर खड़े हो गए। गेहूँ पीसने से पहले उसे बीनकर साफ़ करने पर वह ज़ोर देते थे। कौपीनधारी इस महान व्यक्ति को अनाज बीनते देखकर उनसे मिलने वाले लोग हैरत में पड़ जाते थे। बाहरी लोगों के सामने शारीरिक मेहनत का काम करते गांधी को शर्म नहीं लगती थी। एक बार उनके पास कॉलेज के कोई छात्र मिलने आए। उनको अँग्रेज़ी भाषा के अपने ज्ञान का बड़ा गर्व था। गांधी से बातचीत के अंत में वे बोले, “बापू, यदि मैं आपकी कोई सेवा कर सकूँ तो कृपया मुझे अवश्य बताएँ।” उन्हें आशा थी कि बापू उन्हें कुछ लिखने-पढ़ने का काम देंगे। गांधी ने उनके मन की बात ताड़ ली और बोले, “अगर आपके पास समय हो, तो इस थाली के गेहूँ, बीन डालिए।” आगंतुक बड़ी मुश्किल में पड़ गए, लेकिन अब तो कोई चारा नहीं था। एक घंटे तक गेहूँ बीनने के बाद वह थक गए और गांधी से विदा माँग कर चल दिए।

    कुछ वर्षों तक गांधी ने आश्रम के भंडार का काम संभालने में मदद दी। सवेरे की बाद वे रसोईघर में जाकर सब्ज़ियाँ छीलते थे। रसोईघर या भंडारे में अगर वे गंदगी या मकड़ी का जाला देख पाते थे तो अपने साथियों को आड़े हाथों लेते। उन्हें सब्ज़ी, फल और अनाज के पौष्टिक गुणों का ज्ञान था। एक बार एक आश्रमवासी ने बिना धोए आलू काट दिए। गांधी ने उसे समझाया कि आलू और नींबू को बिना धोए नहीं काटना चाहिए। एक बार एक आश्रमवासी को कुछ ऐसे केले दिए गए जिनके छिलकों पर काले चक्ते पड़ गए थे। उसने बहुत बुरा माना। तब गांधी ने उसे समझाया कि ये जल्दी पच जाते हैं और तुम्हें ख़ासतौर पर इसलिए दिए गए हैं कि तुम्हारा हाज़मा कमज़ोर है। गांधी आश्रमवासियों को अकसर स्वयं ही भोजन परोसते थे। इस कारण वे बेचारे बेस्वाद उबली हुई चीज़ों के विरुद्ध कुछ कह भी नहीं पाते थे। दक्षिण अफ़्रीका की एक जेल में वे सैकड़ों कैदियों को दिन में दो बार भोजन परोसने का कार्य कर भी चुके थे।

    आश्रम का एक नियम यह था कि सब लोग अपने बर्तन ख़ुद साफ़ करें। रसोई के बर्तन बारी-बारी से कुछ लोग दल बाँधकर धोते थे। एक दिन गांधी ने बड़े-बड़े पतीलों को ख़ुद साफ़ करने का काम अपने ऊपर लिया। इन पतीलों की पेंदी में ख़ूब कालिख लगी थी। राख भरे हाथों से वह एक पतीले को ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने में लगे हुए थे कि तभी कस्तूरबा वहाँ आ गई। उन्होंने पतीले को पकड़ लिया और बोलीं, “यह काम आपका नहीं है। इसे करने को और बहुत से लोग हैं।” गांधी को लगा कि उनकी बात मान लेने में ही बुद्धिमानी है और वे चुपचाप कस्तूरबा को उन बर्तनों की सफ़ाई सौंपकर चले आए। बर्तन एकदम चमकते न हों, तब तक गांधी को संतोष नहीं होता था। एक बार जेल में उनको जो मददगार दिया गया था उसके काम से असंतुष्ट होकर उन्होंने बताया था कि वे ख़ुद कैसे लोहे के बर्तनों को भी माँज कर चाँदी-सा चमका सकते थे। 

    जब आश्रम का निर्माण हो रहा था उस समय वहाँ आने वाले कुछ मेहमानों को तंबुओं में सोना पड़ता था। एक नवागत को पता नहीं था कि अपना बिस्तर कहाँ रखना चाहिए, इसलिए उसने बिस्तर को लपेटकर रख दिया और यह पता लगाने गया कि उसे कहाँ रखना है। लौटते समय उसने देखा कि गांधी ख़ुद उसका बिस्तर कंधे पर उठाए रखने चले जा रहे हैं।

    आश्रम के लिए बाहर बने कुएँ से पानी खींचने का काम भी वे रोज़ करते थे। एक दिन गांधी कुछ अस्वस्थ थे और चक्की पर आटा पीसने के काम में हिस्सा बँटा चुके थे। उनके एक साथी ने उन्हें थकावट से बचाने के लिए अन्य आश्रमवासियों की सहायता से सभी बड़े-छोटे बर्तनों में पानी भर डाला। गांधी को यह बात पसंद नहीं आई, मन में कुछ ठेस भी लगी। उन्होंने बच्चों के नहाने का एक टब उठा लिया और कुएँ से उसमें पानी भरकर टब को सिर पर उठाकर आश्रम में ले आए। बेचारे कार्यकर्ता को बहुत पछतावा हुआ।

    शरीर से जब तक बिलकुल लाचारी न हो तब तक गांधी को यह बात बिलकुल पसंद नहीं थी कि महात्मा या बूढ़े होने के कारण उनको अपने हिस्से का दैनिक शारीरिक श्रम न करना पड़े। उनमें हर प्रकार का काम करने की अद्भुत क्षमता और शक्ति थी। वह थकान का नाम भी नहीं जानते थे। दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध के दौरान उन्होंने घायलों को स्ट्रेचर पर लादकर एक-एक दिन में पच्चीस-पच्चीस मील तक ढोया था। वह मीलों पैदल चल सकते थे। दक्षिण अफ़्रीका में जब वे टॉलस्टॉय बाड़ी में रहते थे, तब पास के शहर में कोई काम होने पर दिन में अकसर बयालीस मील तक पैदल चलते थे। इसके लिए वे घर में बना कुछ नाश्ता साथ लेकर सुबह दो बजे ही निकल पड़ते थे, शहर में खरीददारी करते और शाम होते-होते वापस फार्म पर लौट आते थे। उनके अन्य साथी भी उनके इस उदाहरण का ख़ुशी-ख़ुशी अनुकरण करते थे।

    एक बार किसी तालाब की भराई का काम चल रहा था, जिसमें गांधी के साथी लगे हुए थे। एक सुबह काम ख़त्म करके वे लोग फावड़े, कुदाल और टोकरियाँ लिए जब वापस लौटे तो देखते हैं कि गांधी ने उनके लिए तश्तरियों में नाश्ते के लिए फल आदि तैयार करके रखे हैं। एक साथी ने पूछा, “आपने हम लोगों के लिए यह सब कष्ट क्यों किया? क्या यह उचित है कि हम आपसे सेवा कराएँ?” गांधी ने मुसकराकर उत्तर दिया, “क्यों नहीं। मैं जानता था कि तुम लोग थके-माँदे लौटोगे। तुम्हारा नाश्ता तैयार करने के लिए मेरे पास ख़ाली समय था।”

    दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों के जाने-माने नेता के रूप में गांधी भारतीय प्रवासियों की माँगों को ब्रिटिश सरकार के सामने रखने के लिए एक बार लंदन गए। वहाँ उन्हें भारतीय छात्रों ने एक शाकाहारी भोज में निमंत्रित किया। छात्रों ने इस अवसर के लिए स्वयं ही शाकाहारी भोजन तैयार करने का निश्चय किया था। तीसरे पहर दो बजे एक दुबला-पतला और छरहरा आदमी आकर उनमें शामिल हो गया और तश्तरियाँ धोने, सब्ज़ी साफ़ करने और अन्य छुट-पुट काम करने में उनकी मदद करने लगा। बाद में छात्रों का नेता वहाँ आया तो क्या देखता है कि वह दुबला-पतला आदमी और कोई नहीं, उस शाम को भोज में निमंत्रित उनके सम्मानित अतिथि गांधी थे।

    गांधी दूसरों से काम लेने में बहुत सख्त थे, लेकिन अपने लिए दूसरों से काम कराना उन्हें नापसंद था। एक बार एक राजनीतिक सम्मेलन से गांधी जब अपने डेरे पर लौटे तो रात हो गई थी। सोने से पहले वे अपने कमरे का फर्श बुहार रहे थे। उस समय रात के दस बजे थे। एक कार्यकर्ता ने दौड़कर गांधी के हाथ से बुहारी ले ली।

    जब गांधी गाँवों का दौरा कर रहे होते, उस समय रात को यदि लिखते समय लालटेन का तेल ख़त्म हो जाता तो वे चंद्रमा की रोशनी में ही पत्र पूरा कर लेना ज़्यादा पसंद करते थे, लेकिन सोते हुए अपने किसी थके हुए साथी को नहीं जगाते थे। नौआखाली पद-यात्रा के समय गांधी ने अपने शिविर में केवल दो आदमियों को ही रहने की अनुमति दी। इन दोनों को यह नहीं मालूम था कि खाखरा कैसे बनाया जाता है। इस पर गांधी स्वयं रसोई में जा बैठे और निपुण रसोइए की तरह उन्होंने खाखरा बनाने की विधि बताई। उस समय गांधी की अवस्था अठहत्तर वर्ष की थी।

    गांधी को बच्चों से बहुत प्रेम था। अपने बच्चों के जन्म के दो माह बाद उन्होंने कभी किसी दाई को बच्चे की देखभाल के लिए नहीं रखा। वे मानते थे कि बच्चे के विकास के लिए माँ-बाप का प्यार और उनकी देखभाल अनिवार्य है।

    वे माँ की तरह बच्चों की देखभाल कर सकते थे, खिला-पिला और बहला सकते थे। एक बार दक्षिण अफ्रीका में जेल से छूटने के बाद घर लौटने पर उन्होंने देखा कि उनके मित्र की पत्नी श्रीमती पोलक बहुत ही दुबली और कमज़ोर हो गई हैं। उनका बच्चा उनका दूध पीना छोड़ता नहीं था और वह उसका दूध छुड़ाने की कोशिश कर रही थीं। बच्चा उन्हें चैन नहीं लेने देता था और रो-रोकर उन्हें जगाए रखता था। गांधी जिस दिन लौटे, उसी रात से उन्होंने बच्चे की देखभाल का काम अपने हाथों में ले लिया। सारे दिन बड़ी मेहनत करने, सभाओं में भाषण देने के बाद, चार मील पैदल चलकर गांधी कभी-कभी रात को एक बजे घर पहुँचते थे और बच्चे को श्रीमती पोलक के बिस्तर पर से उठाकर अपने बिस्तर पर लिटा लेते थे। वह चारपाई के पास एक बर्तन में पानी भरकर रख लेते ताकि यदि बच्चे को प्यास लगे तो उसे पिला दें, लेकिन इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। बच्चा कभी नहीं रोता और उनकी चारपाई पर रात में आराम से सोता रहता था। एक पखवाड़े तक माँ से अलग सुलाने के बाद बच्चे ने माँ का दूध छोड़ दिया।

    गांधी अपने से बड़ों का बड़ा आदर करते थे। दक्षिण अफ्रीका में गोखले गांधी के साथ ठहरे हुए थे। उस समय गांधी ने उनके दुपट्टे पर इस्त्री की। वह उनका बिस्तर ठीक करते थे, उनको भोजन परोसते थे और उनके पैर दबाने को भी तैयार रहते थे। गोखले बहुत मना करते थे. लेकिन गांधी नहीं मानते थे। महात्मा कहलाने से बहुत पहले एक बार दक्षिण अफ्रीका से भारत आने पर गांधी कांग्रेस के अधिवेशन में गए। वहाँ उन्होंने गंदे पाखाने साफ़ किए और बाद में उन्होंने एक बड़े कांग्रेसी नेता से पूछा, “मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?” नेता ने कहा, “मेरे पास बहुत से पत्र इकट्ठे हो गए हैं जिनका जवाब देना है। मेरे पास कोई कारकुन नहीं है जिसे यह काम दूँ। क्या तुम यह काम करने को तैयार हो?” गांधी ने कहा, “ज़रूर, मैं ऐसा कोई भी काम करने को तैयार हूँ जो मेरी सामर्थ्य से बाहर न हो।” यह काम उन्होंने थोड़े ही समय में समाप्त कर डाला और इसके बाद उन्होंने उन नेता की कमीज़ के बटन आदि लगाने और उनकी अन्य सेवा का काम ख़ुशी से किया।

    जब कभी आश्रम में किसी सहायक को रखने की आवश्यकता होती थी, तब गांधी किसी हरिजन1 को रखने का आग्रह करते थे। उनका कहना था, “नौकरों को हमें वेतनभोगी मज़दूर नहीं, अपने भाई के समान मानना चाहिए। इसमें कुछ कठिनाई हो सकती है, कुछ चोरियाँ हो सकती हैं, फिर भी हमारी कोशिश सर्वथा निष्फल नहीं जाएगी।”

    उन्हें यह मालूम ही न था कि किसी को नौकर की भाँति कैसे रखें। एक बार भारत की जेल में उनके कई साथी कैदियों को उनकी सेवा टहल का काम सौंपा गया। एक आदमी उनके फल धोता या काटता, दूसरा बकरियों को दुहता, तीसरा उनके निजी नौकर की तरह काम करता और चौथा उनके पाखाने की सफ़ाई करता था। एक ब्राह्मण क़ैदी उनके बरतन धोता था और दो गोरे यूरोपियन प्रतिदिन उनकी चारपाई बाहर निकालते थे।

    गांधी ने देखा कि इंग्लैंड में ऊँचे घरानों में घरेलू नौकरों को परिवार का आदमी माना जाता था। एक बार एक अंग्रेज़ के घर से विदा लेते समय उन्हें यह देखकर ख़ुशी हुई कि घरेलू नौकरों का उनसे परिचय नौकरों की तरह नहीं बल्कि परिवार के सदस्य के समान कराया गया।

    एक बार एक भारतीय सज्जन के यहाँ काफ़ी दिनों तक ठहरने के बाद गांधी जब चलने लगे तब उस घर के नौकरों से उन्होंने विदा ली और कहा, “मैं कभी किसी को अपना नौकर नहीं समझता, उसे भाई या बहन ही माना है और आप लोगों को भी मैं अपना भाई समझता हूँ। आपने मेरी जो सेवा की उसका प्रतिदान देने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है, लेकिन ईश्वर आपको इसका पूरा फल देंगे।”

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    अनु बंद्योपाध्याय

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    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत भाग 1 (पृष्ठ 90)
    • रचनाकार : अनु बंद्योपाध्याय
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022

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