बिंदुघाटी : करिए-करिए, अपने प्लॉट में कुछ नया करिए!
अखिलेश सिंह
15 जून 2025

• अवसर कोई भी हो सबसे केंद्रीय महत्व केक का होता है। वह बिल्कुल बीचोबीच होता हुआ, फूला हुआ, चमकता हुआ, अकड़ा हुआ, आकर्षित करता हुआ रखा होता है।
वह एक विचारहीन प्रविष्टि के रूप में हर जगह आवश्यक बना और अब उसके बिना किसी समारोह की पूर्णता संभव नहीं है।
अपने आस-पास रुककर देखिए :
अब लगभग सभी व्यक्तित्व केक बन चुके हैं।
• उगना रे मोर कतए गेला...
किंवदंती है कि विद्यापति के पास शंकर जी आए। उन्होंने अपना नाम उगना बताकर उनसे नौकरी माँगी। शंकर जी विद्यापति की निशि-दिन सेवा करते थे। एक दिन किसी यात्रा में विद्यापति को प्यास लगी। उन्होंने उगना को दौड़ाया। उगना ने पानी से भरा पात्र विद्यापति को दिया। पानी पीते ही विद्यापति बोले कि यह तो गंगाजल है, तुम कहाँ से लाए!
उगना ने कहा : कुएँ से लाया, यह गंगाजल नहीं है।
विद्यापति अड़ गए। काफ़ी बकझक हुई। अंततः शंकर जी को प्रकट होना पड़ा।
यहाँ महत्त्व विद्यापति के शैव होने और ऐसी कथाओं में मेरी दिलचस्पी होने का नहीं है।
यहाँ महत्त्व उस कथा-संकेत का है; जो एक कवि से संवेदनशील, अनुरागी-चित्त और सूक्ष्म होने की माँग करता है। विद्यापति ऐसे ही थे, इसलिए ही गंगाजल और सामान्य कुएँ के पानी को चट से समझ गए।
• सारे महत्त्वपूर्ण दिवस पतनोन्मुखी लोगों की पहचान के लिए होते हैं। उस दिन वे स्वयं नक्षत्र होने के भ्रम में सोशल मीडिया के चित्राकाश में चमकना चाहते हैं और पतित दिखाई पड़ते हैं।
इसी तरह, पाँच जून भी इंडियन फ़ोटोग्राफी दिवस जैसा हो गया है। एक बिरवे के ऊपर पाँच-पाँच लोग इस तरह चढ़े होते हैं, मानो वह किसी कारणवश लगने से इनकार कर देगा और भाग जाएगा।
• वे आते हैं—हर कुछ महीने में। दो-तीन समकालीन परिभाषित पदबंधों के साथ। जब उनके पास कुछ नहीं होता—सहलावन की हुड़क होती है। लोग उन्हें सहलाते हैं। उन्हें कुछ का कुछ बताते हैं।
वे अपने बारे में और अपने निष्कर्षो में कितने आश्वस्त हैं! मसलन—वे दलित हैं, हिंदू हैं, बौद्धिक हैं, कवि हैं, प्रतिरोधक गोली हैं... इत्यादि।
उन्हें कौन कहे कि उनके निष्कर्ष अब पुराने आधारवाक्यों से पीड़ित हैं। उन्हें नवीनता और विवरण की रौशनी चाहिए।
करिए-करिए—अपने प्लॉट में कुछ नया करिए।
• अब प्रतिक्रियाओं में ही सफलता निहित है...
आज से कुछ रोज़ पूर्व हिंदी कवि-रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल ने हिंदी के लेखकों को दयनीयता से उबारने का प्रयास किया।
हालाँकि, वह प्रयास सफ़ल नहीं हुआ; पर फ़ुटेज बढ़िया पा गया। उसे बहुत-सी प्रतिक्रियाएँ मिलीं। उन्होंने अपनी तफ़्तीश की बहुत शानदार हेडिंग बनाई, लेकिन वह मात खाए—अख़बार की बयानी बनाम साहित्यकारों के साक्ष्य के प्रसंग में।
जो भी हो, प्रतिक्रियाएँ आना ही इस समय सफलता की घोषणा है और इस तरह देखें तो व्योमेश शुक्ल अपने उद्देश्य में काफ़ी सफल हुए।
• एकांत से अधिक समारोहपूर्ण अब कुछ भी नहीं है। एकांत का साकार योजनाबद्ध रूप में नज़र आता है। योग-ध्यान, पूजा-भजन, सेवा-परमार्थ—ये सभी समारोहपूर्ण हैं। सब कुछ बदल गया तो एकांत भी। लेकिन योग-ध्यान या पूजा-पतरिंगा से मुझे क्या! इसे समीक्षित करना मेरा विषय नहीं है, यह तो प्रस्तावना भर है।
विषय है—‘नई धारा’ द्वारा हाल में दो लेखकों को कुछ समय के लिए उपलब्ध कराई गई रॉयटर्स रेजीडेंसी। मेरा ख़याल है कि कृष्ण कल्पित और शिवांगी गोयल वहाँ एकांत में, सुख-सुविधा के साथ कुछ किताब-विताब लिखने गए हैं। ‘नई धारा’ के पास आईं चार प्रविष्टियों में से बड़ी मशक्कत के साथ इन दो लेखकों का चयन हो पाया है। कितनी कठिन स्पर्धा रही होगी! अब इतनी कठिन स्पर्धा से गुज़रकर ये दोनों रचनाकार दिन भर फ़ेसबुक पर अपने इस महती अभियान के एक-एक पहर की सूचना देते रहते हैं। क्या इससे मुझे कोई दिक़्क़त है! बिल्कुल नहीं। मैं तो संसार की सारी रोचकताओं का आनंद उठाता हूँ।
लेकिन कभी-कभी कुछ शब्दों के लिए मुझे दुःख होता है—जैसे कि एकांत, जैसे कि रचना, जैसे कि...
• दो दौर...
एक दौर में सुकांत को सांसारिक अनुशासन से चिढ़ थी। उसने सिद्धों के बाह्य व्यवहार को अपनी प्रस्तुति बना रखा था।
अब वह नाथपंथी हो गया है। उसके जीवन में यह दौर-ए-पुख़्तगी है। अब वह अपने सारे काम सुफल कर लेगा। मछंदर जागे थे कि नहीं, वह ज़रूर जाग गया!
महफ़िलों में अपनी फ़िटनेस साबित करने के लिए उपयुक्त पंथ चाहिए।
• दिल ने जिसे पाया था आँखों ने गँवाया है...
विलियम ब्लेक एक रोमांटिक पोएट हुए। उन्होंने ‘सॉन्ग ऑफ़ इनोसेंस’ और उसके कुछ समय बाद ‘सॉन्ग ऑफ़ एक्सपीरियंस’ नाम से कविताएँ लिखीं। बहुत बताने की ज़रूरत नहीं है कि इन दो कविताओं में उन्होंने पहले में बचपन की स्वतंत्रता, ख़ुशहाली का जीवन और दूसरे में दुनिया की परतदारी, धोखे और कठोरता के बारे में लिखा है। उनके अनुसार बचपन के लिए संसार एक जन्नत जैसा है और जीवन-अनुभव के बाद वही संसार नरक हो जाता है।
यहाँ बचपन या इनोसेंस की अवस्था को लेकर कई तरह की समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और समस्या-सांकेतिक बातें हो सकती हैं; किंतु उनका इशारा यहाँ इस ओर है कि जिस नासमझी में हम संसार को विस्मय और आह्लाद से देखते हैं, वह उसे एक हद तक जान लेने के बाद गड़बड़ हो जाता है।
यूरोप के रोमांटिक कवियों की दृष्टि और उनके विषयों का असर यूरोप पर ही नहीं, पूरे संसार पर हुआ होगा। शैलेंद्र विरचित और दिलीप कुमार अभिनीत गीत याद आता है :
टूटे हुए ख़्वाबों ने हमको ये सिखाया है
• सपने, सफ़र और मंज़िल—इनके त्रिशूल से पीड़ा उपजती है। सब पीड़ित हैं। पीड़ित मन आपबीती सुनाता है। आपबीतियाँ ऊब पैदा कर रही हैं। वे क्षुद्र स्थितियों से टकराकर जन्म ले रही हैं। भाषा ने उन्हें तारतम्यता दे दी है। कहाँ तक जाएगा यह अभिव्यक्ति का—‘आपबीती-युग’!
• अगर सर्दियाँ हैं तो क्या वसंत बहुत दूर होगा
सर्दियों के बाद वसंत आता है—यह हिंदी में सामान्य उक्ति है और औचित्यपूर्ण भी है।
लेकिन बुरे दिन के बाद अच्छे दिन आते हैं, यह भारतीय संदर्भ में व्यंजक हो उठा है। दोस्तों को ढाढ़स बँधाने के लिए शेली की उपरोक्त कविता-पंक्ति कारगर है। अपनी भाषा में व्यंजना का प्रकोप अधिक हो जा,ए तो जीवन की सामान्य उक्तियों के लिए इधर-उधर निकल जाने में बुराई नहीं है।
• उनका काम दुःख को खोज निकालना है। दुःख कहीं भी छिपा हो, उनकी नज़रों से बच नहीं सकता। अगर किसी को महसूस नहीं हो रहा हो तो भी किसी तह से दुःख निकाल लेने की तरकीब वे जानते हैं। वह दुःख को ‘सफ़रिंग’ भी कहते हैं। यह ‘सफ़रिंग’ एक छायाग्रस्त शब्द है, उनकी ही तरह। उनके पास हमेशा एक स्थायी माइक होता है और उनके प्रश्नकर्ताओं के माइक बदलते रहते हैं। इस तरह जल्द ही यूट्यूबित होने वालीअपनी किसी डिबेट में वे सत्ताधीश होते हैं।
उनकी ब्रांडिंग ऐसी है कि वे सारे उत्तर जानते हैं; शायद वे सारे प्रश्न भी जानते हैं, क्योंकि किसी दीर्घा में वे किसी का सवाल कभी भी छीन लेते हैं।
वे घरेलू झगड़े, बिस्तर की सिलवटें, जीवन में क्लेश, असफलता-लाचारी, हताश-निराश रोगियों पर टीका जैसी बातों से ‘बिंदुघाटी’ में ख़ूब दिखते हैं।
वह कौन?
और कौन—आचार्य प्रशांत!
उनके परिचय में सबसे पहले ये बातें आती हैं :
अरे! आईएएस होकर छोड़ दिए। आईआईटी और आईआईएम से भी पढ़ा है महराज!
फिर, फिर बढ़िया धंधे में है अब... इतना रुपया और शोहरत किसी ओहदे में न मिलती।
• अब साक्षात्कार को रचनात्मक विधा का दर्जा दे दिया जाना चाहिए। वे इतने अधिक और इतने बुनावटी-बनावटी हो रहे हैं कि उनसे भी एक फ़िक्शन तैयार हो रहा है।
सवाली अब महामहिम बनने की ओर हैं। छवियों पर छवियाँ बन रही हैं। जीवन में जितनी टूटन है—साक्षात्कारों में उतना ही महंत-मनाई।
• साक्षात्कारों में जितनी अधिक मैं-कारिता होती है, मैं-कार उतना ही बड़ा सेलिब्रिटी होता है।
• प्रायः ऐसा लगता है कि मनुष्य की सारी मेहनत और सारे कलात्मक प्रपंच ही सिर्फ़ इसीलिए हैं कि एक दिन वह ख़ूब सारे साक्षात्कार देगा। उसका मुँह हरदम खुला रहेगा और दृष्टि बड़ी से बड़ी बातों की तलाश में रहेगी। अपने बारे में बोलने को मिले तो मनुष्य अब तक जाने गए बोलने के सारे शिल्प ख़र्च कर डालेगा।
• गर्मी बढ़ी तो कवि-मेढक-मीन एक दूसरे से यही पूछने लगे—कब आएगा आषाढ़...
• आषाढ़ आ गया है, लेकिन यूँ :
गगन घहराइ जुटी घटा कारी।
पौन झकझोर चपला चमकि चहुँओर।।
• वे पहाड़-सागर-झरनों से दिख रहे हैं।
इस बार उन यूट्यूबरों के लिए कोई संबोधन नहीं है।
•••
अन्य बिंदुघाटी यहाँ पढ़िए : कविताएँ अब ‘कुछ भी’ हो सकती हैं | क्या किसी का काम बंद है! | ‘ठीक-ठीक लगा लो’—कहना मना है
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