क्या हुआ ‘हिन्दवी’ उत्सव की कविता-संध्या (में नहीं) से

मैं गए रविवार (28 जुलाई 2024) ‘हिन्दवी’ द्वारा आयोजित कविता-पाठ के कार्यक्रम ‘कविता-संध्या’ सुनने के लिए त्रिवेणी कला संगम (नई दिल्ली) गया था। वहाँ का समाँ देखकर मैं विस्मित रह गया। गंभीर कविता के प्रति ऐसा उत्साह देखना मेरे लिए दुर्लभ अनुभव था। पिछले दिनों महाराष्ट्र में एक चोर ने नारायण सुर्वे (1926-2010) के घर चोरी की। जब उसे पता चला कि उसने जहाँ से चोरी की है, वह मशहूर मराठी कवि नारायण सुर्वे का घर है; तब उसे पश्चाताप हुआ और वह सामान वापस कर एक माफ़ीनामा सुर्वे के घर छोड़ गया। इस घटना को मराठी जनता ने अपने कवियों के प्रति प्रेम की मिसाल के तौर पर पेश किया। यह भी कहा गया कि इस तरह का काव्य-प्रेम हिंदी प्रदेश में असंभव है।

लेकिन ‘हिन्दवी’ के वार्षिक आयोजन ‘हिन्दवी उत्सव’ में कविता सुनने के लिए उमड़ी भीड़ तो एक अलग ही कहानी बयाँ कर रही थी। यह सिर्फ़ सेल्फ़ी लेने वाले फ़ैशनेबल काव्य-प्रेमी नहीं थे। वे भीड़ नहीं, बल्कि रसिक 'सहृदय' थे। कविता-पाठ पर उनकी प्रतिक्रियाएँ देखकर लगा कि उनके पास कवित्त-विवेक है। वे प्रत्येक पंक्ति पर वाह-वाह करने वाले हास्य काव्य-सम्मेलनों वाले श्रोता नहीं थे। कविता सुनने, समझने के लिए जो परिष्कृत अभिरुचि और धीरज चाहिए—वह उनके पास था।

इस कविता-संध्या में निर्मला पुतुल, बाबुषा कोहली, पराग पावन, रामाज्ञा शशिधर, कृष्ण कल्पित जैसे मशहूर कवियों ने अपनी कविताएँ पढ़ीं। प्रेम, प्रकृति, प्रतिरोध, राजनीतिक व्यंग्य, बेरोज़गार युवा, किसान, पीड़ित स्त्री, रोज़मर्रापन की नाटकीयता, मूल्यों के क्षरण आदि विषयों पर कविताएँ पढ़ीं। यह देखना सुखद था कि श्रोताओं में बहुतायत युवा थे। यहाँ पठित कविताओं में युवाओं के स्वप्न और सरोकार शामिल थे, कवियों के स्वर में इन युवाओं की अनुभूति संप्रेषित हो रही थी। इसलिए ये युवा कविताओं से स्वयं को कनेक्ट कर पा रहे थे—एकदम अंतरंग ढंग से। कवि और श्रोता के बीच ऐसी जुगलबंदी, भावनाओं का ऐसा तादात्म्य विरल और अद्भुत था।

साहित्य के क्षेत्र में ‘हिन्दवी’ की अपार लोकप्रियता का कारण सिर्फ़ इसको संचालित करने वाली पूँजी नहीं है, वह तो बहुतों के पास है। इसके पीछे और भी कई कारण हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों और सरकारी कला-साहित्य संस्थानों का बहुत तेज़ी से क्षरण हुआ है। वहाँ दोयम दर्जे के लोगों का क़ब्ज़ा हो गया है। वहाँ साहित्य के नाम पर सत्ता का प्रशस्ति-गान होता है। वहाँ न सिर्फ़ सृजन पर पहरा है, बल्कि सर्विलांस का एक सर्वव्यापी भय पसरा हुआ है। ऐसे माहौल में काव्य-पोषण कैसे संभव है! इस शून्यता को ‘हिन्दवी’ जैसे संस्थानों ने भरने का प्रयत्न किया है।

उर्दू में मुशायरे के माध्यम से मास पोएट्री की संस्कृति रही है। हिंदी में मास पोएट्री की संस्कृति हास्य कवि-सम्मेलनों तक सीमित रही है। मास पोएट्री में विशाल भीड़ उमड़ती है, इसलिए वहाँ कविता का मुख्य उद्देश्य भीड़ का मनोरंजन बन जाता है। लेकिन ‘हिन्दवी’ की कविता-संध्या में गंभीर कविताएँ पढ़ी गईं, फिर भी वहाँ मास पोएट्री जैसा माहौल था। जिन दर्शकों को सभागार में जगह नहीं मिली, वे बाहर प्रोजेक्टर पर कार्यक्रम देख रहे थे। ब्लॉकबस्टर फ़िल्म देखने के लिए सिनेमा-हॉल के आस-पास जो माहौल होता है, वह यहाँ कविता के लिए था। हिंदी कवि अक्सर अपनी उपेक्षा की शिकायत कर उदासीन रहते हैं, इस वजह से उनमें एक अतिरिक्त अनासक्ति व्याप्त कर जाती है। लेकिन यहाँ आयोजकों और श्रोताओं द्वारा कवियों को जो सेलेब्रिटी ट्रीटमेंट मिला, उससे वे उल्लसित हो सकते हैं। 

इस कार्यक्रम में जो कविताएँ पढ़ी गईं, उन्हें लोकप्रिय की  बजाय जनप्रिय कहा जाना चाहिए। लोकप्रिय और जनप्रिय कविता में मौलिक अंतर होता है। जनप्रिय कविता शक्ति-संरचना को कठघरे में रखती है और पीड़ित के पक्ष में मुखर स्वर बन जाती है। वहीं कुछ अपवादों को छोड़कर लोकप्रिय कविताओं का मुख्य उद्देश्य सबका मनोरंजन होता है, उन्हें सुनकर सब हँस सकते हैं; सब प्रफुल्लित हो सकते हैं। जबकि जनप्रिय कविताओं को सुनकर पीड़ित हँस सकता है और सत्ता तिलमिला जाती है। नई पीढ़ी के कवि पराग पावन की बेरोज़गारी पर लिखी कविताएँ लाखों युवाओं की आवाज़ बन गई हैं, वहीं सत्ता इन कविताओं से बिलबिला जाती है।

एक-दो रोज़ में प्रेमचंद की जयंती मनाई जानी है और वहाँ मंचों से हिंदी साहित्य के प्रति घटती अभिरुचि का मर्सिया गाया जाएगा। लेकिन ‘हिन्दवी’ की कविता-संध्या की ब्लॉकबस्टर सफलता हमारे लिए एक नज़ीर है कि गंभीर प्रयत्न से हिंदी कविता और साहित्य के प्रति अभिरुचि को जीवित किया जा सकता है। यहाँ जो क्राउड आया था, उसकी पृष्ठभूमि डाइवर्स या विविध थी। यहाँ सिर्फ़ हिंदी साहित्य के विश्वविद्यालयी विद्यार्थी नहीं थे। इसमें शहरी मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा था, जो हिंदी को एक विषय के तौर पर भले नहीं पढ़ता; लेकिन हिंदी कविता में अपनी रुचि की वजह से वह यहाँ शामिल हुआ था। ‘हिन्दवी’ ने वाक़ई कविता के भूगोल और क्षितिज का विस्तार किया है। उसने नए, गंभीर और समझदार कविता-प्रेमी तैयार किए हैं।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

24 मार्च 2025

“असली पुरस्कार तो आप लोग हैं”

24 मार्च 2025

“असली पुरस्कार तो आप लोग हैं”

समादृत कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल 59वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है। वर्ष 1961 में इस पुरस्कार की स्थापना ह

09 मार्च 2025

रविवासरीय : 3.0 : ‘चारों ओर अब फूल ही फूल हैं, क्या गिनते हो दाग़ों को...’

09 मार्च 2025

रविवासरीय : 3.0 : ‘चारों ओर अब फूल ही फूल हैं, क्या गिनते हो दाग़ों को...’

• इधर एक वक़्त बाद विनोद कुमार शुक्ल [विकुशु] की तरफ़ लौटना हुआ। उनकी कविताओं के नवीनतम संग्रह ‘केवल जड़ें हैं’ और उन पर एकाग्र वृत्तचित्र ‘चार फूल हैं और दुनिया है’ से गुज़रना हुआ। गुज़रकर फिर लौटना हुआ।

26 मार्च 2025

प्रेम, लेखन, परिवार, मोह की 'एक कहानी यह भी'

26 मार्च 2025

प्रेम, लेखन, परिवार, मोह की 'एक कहानी यह भी'

साल 2006 में प्रकाशित ‘एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी की प्रसिद्ध आत्मकथा है, लेकिन मन्नू भंडारी इसे आत्मकथा नहीं मानती थीं। वह अपनी आत्मकथा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट तौर पर लिखती हैं—‘‘यह मेरी आत्मकथा

19 मार्च 2025

व्यंग्य : अश्लील है समय! समय है अश्लील!

19 मार्च 2025

व्यंग्य : अश्लील है समय! समय है अश्लील!

कुछ रोज़ पूर्व एक सज्जन व्यक्ति को मैंने कहते सुना, “रणवीर अल्लाहबादिया और समय रैना अश्लील हैं, क्योंकि वे दोनों अगम्यगमन (इन्सेस्ट) अथवा कौटुंबिक व्यभिचार पर मज़ाक़ करते हैं।” यह कहने वाले व्यक्ति का

10 मार्च 2025

‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक

10 मार्च 2025

‘गुनाहों का देवता’ से ‘रेत की मछली’ तक

हुए कुछ रोज़ किसी मित्र ने एक फ़ेसबुक लिंक भेजा। किसने भेजा यह तक याद नहीं। लिंक खोलने पर एक लंबा आलेख था—‘गुनाहों का देवता’, धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और उसके चरित

बेला लेटेस्ट