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रामतीर्थ

1873 - 1906

रामतीर्थ के उद्धरण

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किसी देश में उस समय तक एकता और प्रेम नहीं हो सकता, जब तक उस देश के निवासी एक-दूसरे के दोषों पर ज़ोर देते रहते हैं।

माताएँ ही सब संसार को उठा सकती हैं। माताएँ ही देश को उठा या गिरा सकती हैं। माताएँ ही प्रकृति के ज्वार में उतार और प्रवाह ला सकती हैं। महापुरुष सदा ही श्रेष्ठ माताओं के पुत्र हुआ करते हैं।

कार्य के लिए कर्म करो। कर्म अपना पुरस्कार आप ही है।

सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, विद्या ज्ञान का दान है।

व्यक्ति, रूप, मान, पद, धन, विद्या और आकार का सत्कार करना मूर्ति-पूजन है।

कोई धर्म-संप्रदाय सबसे प्राचीन है इसीलिए उसे ग्रहण कर लो। प्राचीनतम होना उसके सत्य होने का कोई प्रमाण नहीं है।

धार्मिक वाद-विवाद में और झगड़े जो होते हैं वे नक़द धर्म पर नहीं होते, उधार धर्म पर होते हैं। नक़द धर्म वह है जो मरने के बाद नहीं किंतु वर्तमान जीवन से संबंध रखता है, उधार धर्मएतबारी अर्थात् अंधविश्वास पर निर्भर होता है। उधार धर्म कहने के लिए है, नक़द धर्म करने के लिए।

किसी वस्तु को स्वीकार और किसी धर्म पर विश्वास उसके गुणों के आधार पर करो। स्वयं उसको परखो-जाँचो। उसका सूक्ष्म विश्लेषण करो। बुद्ध, ईसा, मोहम्मद या कृष्ण के हाथ अपनी स्वतंत्रता मत बेचो |

हिन्दू की दृष्टि में लाल और गेरुए रंगों का वही अर्थ है जो ईसाई के लिए 'क्रॉस' का है।

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भय से और दंड से पाप कभी बंद नहीं होते।

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    और 1 अन्य

कोई धर्म-संप्रदाय नवीनतम है इसीलिए उसे ग्रहण करो। नवीन वस्तुएँ सदा सर्वोत्तम नहीं होतीं, क्योंकि वे समय की कसौटी पर नहीं कसी गई हैं।

संसार के धर्म-ग्रंथों को उसी भाव से ग्रहण करना चाहिए, जिस प्रकार रसायनशास्त्र का हम अध्ययन करते हैं और अपने अनुभव के अनुसार अंतिम निश्चय पर पहुँचते हैं।

मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष, हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमाचल मेरा सिर है। मेरे बालों में श्रीगंगाजी बहती हैं। मेरे सिर से सिंधु और ब्रह्मपुत्र निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमरबंद है। कुरुमंडल मेरी दाहिनी ओर मलाबार मेरी बाई जंघा (टाँगें) है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा ! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है? यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परंतु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं मान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ।

वही मनुष्य नेता बनने योग्य होता है, जो अपने सहायकों की मूर्खता, अपने अनुगामियों के विश्वासघात, मानव जाति की कृतघ्नता और जनता की गुण ग्रहण-हीनता की कभी शिकायत नहीं करता।

किसी धर्म-संप्रदाय को इसलिए ग्रहण करो कि मानव जाति की बहुसंख्या उसे मानती आई है।

किसी धर्म-संप्रदाय इसलिए ग्रहण करो कि उसके प्रवर्तक राजा या राजकुमार हैं, क्योंकि राजा-महाराजा प्रायः आध्यात्मिकता में दरिद्र होते हैं।

कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके लिए देशभक्ति का अर्थ केवल भूतकाल के गए-बीते गौरव की निरंतर डींगें मारना भर है। ये दिवालिये साहूकार हैं जो बहुत पुराने बहीखातों पर, जो कि अब व्यर्थ हैं, गहरी देखभाल करते हैं।

किसी धर्म-संप्रदाय में इसलिए विश्वास करो कि वह बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा प्रवर्तित है।

भोले-भाले लड़के और लड़कियों पर धार्मिक विश्वास बलपूर्वक ठूँसने से आध्यात्मिक दरिद्रता जाती है।

प्रत्येक धर्म में अपना-अपना दर्शनशास्त्र, पुराणशास्त्र और कर्मकांड हैं। दर्शनशास्त्र के बिना कोई धर्म टिक नहीं सकता। विद्वानों, बुद्धिमानों और युक्तिशील श्रेणी के लोगों पर प्रभाव डालने के लिए धर्म में दर्शनशास्त्र की ज़रूरत पड़ती है। भावुक स्वभाव के लोगों का मन मोहने के लिए पुराण की, और जनसाधारण को अपनी ओर खींचने के लिए कर्मकांड की उसमें आवश्यकता पड़ती है।

ग़लती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं।

बुद्धि-वैभव के भार से दबे हुए ग्रंथों की अधिकता से क्या हम ऊब नहीं उठे हैं?

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