बंकिम चंद्र चटर्जी के उद्धरण

जो लोग सौंदर्य के उपभोग में उन्मत्त हैं, उनकी यंत्रणा कैसी है, इसका अनुभव मैं भोजन करने के लिए बैठने पर ही करता हूँ। मेरे जीवन में घोर दुःख यह है कि अन्न-व्यंजन थाली में रखते-रखते ही ठंडे हो जाते हैं। उसी प्रकार सौंदर्य-रूपी मोटे चावल का भात है, प्रेम-रूपी केला के पत्तल पर डालते ही ठंडा हो जाता है—फिर कौन रुचि से उसे खाए? अंत में वेश-भूषा-रूपी इमली की चटनी मिलाकर, ज़रा अदरक-नमक के क़तरे डालकर किसी तरह निगल जाना पड़ता है।

लोग कहते हैं—दुष्ट के सारे ही काम अपराध होते हैं। दुष्ट कहता है— मैं भला आदमी हो जाता किंतु लोगों के अन्याय ने मुझे दुष्ट बना दिया है।
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सर्वदा और सर्वत्र सर्व गुणों के प्रकाश से श्रीकृष्ण तेजस्वी थे। वह अपराजेय, अपराजित, विशुद्ध, पुण्यमय, प्रेममय, दयामय, दृढ़कर्मी, धर्मात्मा, वेदज्ञ, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ, लोकहितैषी, न्यायशील, क्षमाशील, निरपेक्ष, शास्ता, मोह-रहित, निरहंकार, योगी और तपस्वी थे। वह मानुषी शक्ति से कार्य करते थे, परंतु उनका चरित्र अमानुषिक था।
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रूप से भी प्रेम उत्पन्न होता है, गुण से भी प्रेम उत्पन्न होता है, क्योंकि दोनों से ही आसक्ति की लालसा उत्पन्न होती है। यदि दोनों एकत्र हो जाते हैं, तो प्रेम की उत्पत्ति शीघ्र होती है।
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जो निष्काम कर्म की राह पर चलता है, उसे इसकी परवाह कब रहती है कि किसने उसका अहित साधन किया है।
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प्रेम तो बुद्धिवृत्तिमूलक होता है। प्रेमास्पद व्यक्ति के सारे गुण जब बुद्धि-वृत्तियों द्वारा परिगृहीत होते हैं, हृदय उन सब गुणों से मुग्ध होकर उनके प्रति आकर्षित और संचारित हो जाता है, तब उस गुणाधार व्यक्ति का संसर्ग पाने की इच्छा और उसके प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। इसका ही परिणाम है सहृदयता और परिणाम में आत्मविस्मृति अथवा आत्म-विसर्जन होना, यही है यथार्थ प्रेम।
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प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत् को सत् बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है।
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मेरे प्रेम का नाम है जीवन-विसर्जन की आकांक्षा। शिरा-शिरा में, रक्त कणों में, हड्डी-हड्डी में मेरा यह अनुराग दिन-रात विचरण करता रहा है।
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गुणों के आकर्षण से उत्पन्न प्रेम चिरस्थायी तो अवश्य होता है किंतु गुणों को पहचानने में समय लगता है। इसी लिए वह प्रेम एकाएक घनिष्ठ नहीं होता—धीरे-धीरे संचारित होता है। किंतु सौंदर्य से उत्पन्न मोह एकदम पूर्ण रूप से प्रबल हो जाता है।
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हाँ, पापी को भी प्रेम करना होगा। प्रेम के लिए पात्र-अपात्र का भेद नहीं है। सभी को प्यार करो। प्रेम उत्पन्न होने पर उसे यत्न से स्थान दो, क्योंकि प्रेम अमूल्य है।
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वह स्पर्श फूल का सा था। उस स्पर्श में जूही, जाती, मल्लिका, शेफालिका, कामिनी, गुलाब, सेवती—सब फूलों की सुगंध मुझे उसमें मिली। जान पड़ा, मेरे आसपास फूल हैं, मेरे सिर पर फूल हैं, मेरे पीछे फूल हैं, मैं फूल ही पहने हूँ, मेरे हृदय के भीतर फूलों के ढेर हैं। किस विधवा ने यह पुष्पमय कोमल स्पर्श बनाया था?
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प्रेम पहले एकमात्र मार्ग पकड़ता है और फिर उपयुक्त समय में शतमुख हो जाता है। प्रणय स्वभावसिद्ध होने पर सैकड़ों पात्रों में पहुँच जाता है-अन्त में गंगा की तरह सागर-संगम में, ईश्वर में, लय को प्राप्त होता है, संसार के सब जीवों में, जो ईश्वर का ही रूप है, विलीन होता है।
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जिसके लिए बंधन नहीं है, वही सबसे अधिक बलशाली है। एक बार तूफ़ान आने पर उसे रोक सके ऐसा बल किसमें है?
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गंगा प्रेम-प्रवाह स्वरूपिणी है। यही प्रेम-गंगा जगदीश्वर के चरण कमल से निकली है। यह जगत में पतितपावनी—ऊँच-नीच, पुण्यात्मा-पापी, सभी को पवित्र करने वाली—है।
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जो आदमी मृत्यु को जीत सकता है, या जीत लेता है, वही प्रेम को मस्तक पर धारणा करता है।
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