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मैथिलीशरण गुप्त

1886 - 1964 | झाँसी, उत्तर प्रदेश

राष्ट्रकवि के रूप में समादृत कवि। ‘भारत भारती’ उल्लेखनीय काव्य-कृति।

राष्ट्रकवि के रूप में समादृत कवि। ‘भारत भारती’ उल्लेखनीय काव्य-कृति।

मैथिलीशरण गुप्त के उद्धरण

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सच्चा धन तो है बस धर्म, जो हिंदू का जीवन मर्म।

धन-रूपी फल का परिश्रम ही मूल है।

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दोषदर्शी होता है द्वेष।

है मरण से भी बुरा अपमान होना लोक में।

युद्ध परिसीमा है परत्व के विकास की।

जो है आत्मविश्वासी वही तो अस्तिवादी है।

सिद्ध एक पुरुषार्थ हमारी भुक्ति-मुक्ति का मंत्र।

गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी?

शिष्ट है वही जो कर्म कौशल विशिष्ट है।

बाण से भी वचन का होता भयंकर घाव है!

हा! अर्थ, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैं।

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