बुज़ - बकरा, कशी - खींचना
जब हम दिल्ली से हवाई जहाज़ में मॉस्को के लिए बैठे थे तो हमें बताया गया था कि काबुल में हमें दूसरा जहाज़ तैयार मिलेगा। लेकिन जब ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के क़रीब हमारा जहाज़ काबुल के एयरोड्रोम पर पहुँचा तो मॉस्को जाने वाला जहाज़ हमें बिना लिए हुए ही उड़ गया और हम उन बच्चों-से ठगे खड़े रह गए, जिन्हें चिड़ियाघर ले जाने वाली बस सड़क पर छोड़कर चली गई हो। सीटें उसमें थीं, लेकिन न जाने किसकी ग़लती से काबुल के रूसी दूतावास को हमारे जाने की सूचना नहीं दी गई थी। चूँकि काबुल से आगे का प्रबंध रूसी दूतावास ही को करना था, और उन्होंने टिकेट नहीं लिए थे, इसलिए हम विवश हो शहर जाने वाली बस में आ सवार हुए। सरकारी होटल में सामान रखकर रूसी दूतावास गए। एक हवाई तार हमने इंडियन पीस काउंसिल को दिया, एक तार दूतावास ने मॉस्को भेजा, लेकिन जब तक कहीं से उत्तर न आए, हमारा काबुल में रुकना अनिवार्य हो गया। तब सोचा कि होटल में बैठे बुरी भली बातें सोचने और परेशान होने से बेहतर है कि इस बरबस-प्रवास का लाभ उठाकर काबुल-दर्शन किया जाए।
होटल डाइनिंग रूम ही में एक अमरीकी लेखक से भेंट हो गई। बातों-बातों में उससे पता चला कि पुराने और नए काबुल और रडयार्ड किपलिंग द्वारा वर्णित काबुल नदी के अलावा नादिरशाह का मज़ार, बावर का मकबरा और अजायबघर देखने की चीज़ें हैं, लेकिन सबसे पहले हमें ‘बुज़कशी’ देख लेनी चाहिए।
‘बुज़कशी, बुज़कशी क्या चीज़ है?’ मैंने हैरत से पूछा। तब उसने बताया कि काबुल का राष्ट्रीय खेल है। तीन दिन तक राष्ट्रीय दिवस मनाया जाएगा और तीन दिन तक बुज़कशी के मैच होंगे। फिर साल भर यह खेल देखने को नहीं मिलेगा।
उसके बाद जिस-जिससे पूछा, उसने पहले बुज़कशी देखने की ही सलाह दी। लेकिन मेरे साथियों में अधिकांश पहले अजायबघर देखना चाहते थे। उन लोगों को यह भय था कि जाने कितने दिन काबुल में रहना पड़े, पचास रुपए की विदेशी मुद्रा, जो सबके पास थी, यदि इधर-उधर ख़र्च कर दी और ज़रूरत पड़ गई तो क्या होगा?
मेरा कहना था कि वैसी सूरत में पचास रुपयों से भी नया होगा! मुसीबत पड़ेगी तो भारतीय दूतावास की शरण जाएँगे या काबुल में स्थित भारतीयों की सहायता लेंगे, लेकिन होटल में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, इसमें गया तुक है। क्यों न इस बरबस-प्रवास का लाभ उठाएँ। लेकिन साथियों में अधिकांश बड़े डरपोक और हिसाबी-किताबी थे।
बुज़कशी देखने के लिए पाँच-दस रुपए का टिकेट ख़र्चने की बात भी और अजायबघर वैसे ही देखा जा सकता था, इसलिए केवल डॉक्टर अधिकारी और रामानुजम मेरे साथ चलने को तैयार हुए, बाक़ी लोगों ने पहने अजायबघर देखने का फ़ैसला किया।
मैच चार बजे शाम शुरू होने वाले थे। स्टेडियम नए शहर से बाहर बना था। हमारा होटल नए शहर में था। स्टेडियम को जाने वाली सड़क के निकट था। पूछने पर पता चला कि वहाँ से स्टेडियम डेढ़-एक मील होगा। सो खाना खाकर-होटल ही से एक-एक स्टर्लिंग के काबुली रुपए तुड़ाए और कुछ देर बाज़ार में घूमकर पैदल ही स्टेडियम को चल दिए।
स्टेडियम को जाने वाली सड़क बड़ी चौड़ी और साफ़ थी और चूँकि राष्ट्रीय दिवस मनाया जा रहा था, इसलिए सड़क के दोनों ओर काबुल की राष्ट्रीय पताकाएँ फहरा रही थीं। आाज तो नई दिल्ली में आए दिन बाहर से प्रतिष्ठित अथितियों के गाने पर राजधानी की सड़कों और चौकों में पताकाएँ फैराई जाती हैं, पर उससे पहले मैंने किसी सड़क को इस तरह पताकाओं से सजा नहीं देखा था। यह भी हो सकता है कि इलाहाबाद में रहने के कारण कभी उन दिनों दिल्ली जाने का सुयोग न हुआ हो, जब बाहर से किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति आया हो और नई दिल्ली की सड़क पताकाओं से गुलज़ार बन गई हों।
हम होटल से ज़रा जल्दी निकल आए थे और यद्यपि मज़े से टहलते हुए जा रहे थे तो भी समय से पहले स्टेडियम पहुँच गए। मौसम सुहाना था और हालाँकि दिन ढल रहा था, पर धूप में ख़ासी गर्मी थी। स्टेडियम के बाहर छिड़काव हो रहा था। हम अभी सड़क से उतरकर स्टेडियम की ओर बढ़े ही थे कि एक आदमी लपकता हुआ हमारी ओर आया और उसने टिकटों की कापी हमारे सामने कर दी। टूटी-फूटी अँग्रेज़ी में उसने हमें समझाया कि दस रुपए में हमें वहाँ बैठने को मिलेगा जहाँ सम्राट ज़ाहिर शाह बैठते हैं। चूँकि हमने स्टेडियम नहीं देखा था, फिर उसने सम्राट के निकट बैठने का लालच दिया, इसलिए हमने टिकट ले लिए और वह हमें अपने साथ ले जाकर ऊपर स्टेडियम की बालकनी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी लगी कुर्सियों की अगली पंक्ति में बैठा आया और उसने बताया कि बराबर के खंड की अगली पंक्ति में सम्राट आकर बैठेंगे।
यह बालकनी वास्तव में दो भागों में विभक्त थी। दाईं ओर के खंड में ज़ाहिर शाह और उनके दरबारियों के लिए सीढ़ी-दर-सीढ़ी कुर्सियाँ बिछी थी। हमारे वाला खंड काबुल में स्थित दूतावासों के लिए सुरक्षित था। दोनों के बीच पर्दा नहीं था, केवल हल्की-सी जाली थी, और अपनी जगह से हम दूसरी ओर बैठने वालों को भली-भाँति देख सकते थे। दोनों बालकनियाँ उस समय ख़ाली थीं। सिवा दूसरों के आने की प्रतीक्षा करने और नीचे ख़ाली स्टेडियम की बहार देखने के हमारे सामने कोई चारा न था।
स्टेडियम बहुत खुला और अंडाकार बना था। दाएँ-बाएँ उसमें अंदर आने को रास्ते बने थे जो दूर से छोटे-छोटे नालों पर बने रेल के पुलों जैसे दिखाई देते थे। हमारी ओर के हिस्से में अभी धूप थी। सामने की सीढ़ियों के परे सिवा आसमान के कुछ भी दिखाई न देता था। बाईं ओर शहर की तरफ़ पताकाएँ लहरा रही थीं...यद्यपि सामने का वह शून्य शाम की धूप में बहुत भला लग रहा था, पर मैं सोचता था यदि वहाँ कुछ बकरियाँ, भेड़ें या कोई घुड़सवार या फिर कोई तमाशाई ही खड़ा हो तो खुले आकाश की भूमि में वह कितना भला लगे! लेकिन सारा स्टेडियम एकदम ख़ाली था। एक मोटर घूम-घूमकर छिड़काव कर रही थी और उसके पानी की बारीक धारों के गिरने से हल्की-सी मिट्टी उड़ती थी, जिससे सोंधी-सोंधी गंध हम तक आ रही थी।
देखते-देखते स्टेडियम के बीच की धूप सरककर बाईं ओर की सीढ़ियों तक हट आई थी। दर्शक आने लगे। अधिकांश ग़रीब और अनपढ़ शलवारें, क़मीज़ें, कोट और पोस्तीन की गोल टोपियाँ पहने या मलमल की पगड़ियाँ बाँधे हुए, जिनके लंबे शमले उनके बाएँ काँधों पर लटक रहे थे। बीच-बीच में कोई यूरोपी जोड़ा, कुछ अमरीकी युवतियाँ, कुछ गोरे युवक देशी चनों में काबुली दाने ऐसे लग रहे थे। हमारी ओर का आधा स्टेडियम भर गया। बालकनी के नीचे दो फ़िल्म यूनिट और कुछ कैमरामैन आकर बैठ गए।
हमारे वाले खंड की कुर्सियाँ भी भर गईं। विभिन्न दूतावासों के लोग आकर बैठ गए। हमें किसी ने नहीं उठाया। हमें भी उन्होंने भारतीय दूतावास से संलग्न समझ लिया होगा। तभी सम्राट ज़ाहिर शाह आ गए और हमारे बराबर के खंड की अगली पंक्ति में, परले कोने पर आकर बैठ गए।
मैं मान लूँ कि उन्हें देखकर मुझे बड़ी निराशा हुई। मैंने कभी शाही पोशाक में, कमर से लटकी तलवार बाँध उनके पिता सम्राट नादिरशाह का फ़ोटो देखा था। अफ़ग़ानिस्तान से भूतपूर्व सम्राट शाह अमानुल्लाह अपनी पत्नी के साथ जब यूरोप की सैर को गए थे और उनकी मलिका ने चुरका उतार दिया था और अपने पति के साथ उसके फ़ोटो छपे थे तो उनकी वापसी पर अफ़ग़ानिस्तान के अपढ़ और दकियानूसी कट्टर निवासियों ने उन्हें काफ़िर घोषित कर, बच्चा सिक्का के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था। शाह अमानुल्लाह तख़्त छोड़कर इंग्लिस्तान भाग गए थे। तब नादिरशाह, जो सेना के कमांडर-इन-चीफ़ थे और देश के बाहर गए हुए थे, वापस आए थे। सेना इकट्ठी कर उन्होंने बच्चा सिक्का का मुक़ाबिला किया था, उसे हराया था और स्वयं अफ़ग़ानिस्तान के तहत पर बैठ गए थे। तभी उनका वह फ़ोटो मैंने देखा था।
नादिरशाह बहुत बरस नहीं जिए थे। ज़ाहिर शाह जवान ही थे, जब गद्दी पर बैठ गए थे। तभी मैंने उनका भी वैसा ही एक फ़ोटो देखा था। और मेरा ख़याल था कि में उसी शाही पोशाक में राष्ट्रीय खेल देखने आएँगे, लेकिन सीधा-सादा, किंचित ढीला सूट पहने जब वे अपनी जगह आकर बैठ गए और शायद टोपी उन्होंने उतार दी तो अपने घुटे हुए सिर और उस साधारण सूट में मुझे वे कहीं से अफ़ग़ानिस्तान के सम्राट नहीं लगे। मैंने लगभग बीस वर्ष पहले उनका फ़ोटो देखा था और कैसी मूर्खता की बात थी कि मैं उन्हें कुछ वैसा ही देखने का इच्छुक था।...लंबा तगड़ा, न ज़्यादा पतला, न मोटा शरीर, चौड़े कंधे, नुकीला चेहरा, तीखी-लंबी नाक और घुटा हुआा सिर—उग्र ने उनका शरीर कुछ ढीला कर दिया था। यदि यह मालूम न होता कि वे अफ़ग़ानिस्तान के शाह है, और वे बाज़ार में सामने पड़ जाते तो मैं उन्हें कोई पढ़ा-लिखा सफल व्यापारी, या कोई अफ़सर ही समझता।...हमारे देश में पढ़े-लिखे बहुत कम सिर घुटाते हैं, और यहाँ अफ़ग़ानिस्तान के शाह सिर घुटाए बैठे थे, जिससे उनकी नाक कुछ और नुमायाँ हो गई थी। बाद में ताजिकस्तान की राजधानी स्तालिनायाद में बड़े-बड़े ताजिक अफ़सरों और कौलोख़ोज के चेयरमैन तक को मैंने सिर घुटाए, चोकोर-सी ताजिकस्तानी टोपी सिर पर टिकाए देखा। लेकिन यह बाद की बात है। तब तो सम्राट ज़ाहिर शाह को यूँ आम लोगों की तरह बैठे देखकर निराशा ही हुई।...
लेकिन उस पहली निराशा के बाद जब मैंने सोचा तो मुझे ख़ुशी भी हुई। हमारे यहाँ मामूली मिनिस्टर भी (जो कल तक भले ही साधारण आदमी रहा हो) जब अपने हाली-मवालियों के साथ आकर किसी मजलिस में बैठता है तो इस बात का एहसास करा देता है कि वह मिनिस्टर है और आम लोगों से भिन्न है, और यहाँ अफ़सानिस्तान का शाह निहायत सीधे-सादे सूट में आम अफ़ग़ानों की तरह सिर घुटाए, किसी अकड़ या तनाव या दिखावे के बिना बैठा था। कुछ अजीब-सी सहजता मुझे शहे-अफ़ग़ानिस्तान के यहाँ दिखाई थी, जो पहली निराशा के बाद मुझे भली लगी।
कुर्सी पर आकर उनके बैठते ही नीचे स्टेडियम में सरगर्मी बढ़ गई। दाईं ओर की सीढ़ियों पर भूरे बऔर सब्ज़ कॉर्डराय की क़मीज़ें-शलबारें और पोस्तीन की ऐसी गोल टोपियाँ पहने, जिनके सामने भूरे या हरे बैंड थे, अफ़गान खिलाड़ियों की दो टीमें एक पंक्ति में जा बैठीं और उनका फ़ोटो लिया गया। फ़िल्म यूनिट ने भी तमाशाइयों और खिलाड़ियों का फ़िल्म लिया। फिर बालकनी के सामने, स्टेडियम की ओर, मैदान में चूने से एक गोल दायरा खींच दिया गया और एक सिर-कटे काले बकरे का शव उसमें लाकर रख दिया गया। तब घोड़े मैदान में आए—भरे-पूरे, हृष्ट-पुष्ट, जिनकी बोटी-बोटी थिरकती थी। तब वे भूरी और हरी वर्दियों वाले खिलाड़ी उन पर जा चढ़े। दोनों टीमों में छह-छह जवान थे। सम्राट के सामने पंक्तिबद्ध खड़े होकर उन्होंने सलामी दी, फिर वे गोल दायरे में एक-दूसरे से बिल्कुल सटे जा खड़े हुए—आधे दायरे में छह घोड़े दाईं तरफ़ और आधे दायरे में छह घोड़े बाईं तरफ़। दायरा इतना ही बड़ा था कि एक-दूसरे से बिल्कुल सटे बारह घुड़सवार उसके भीतर खड़े हो सकें। सिर-कटा बकरा घोड़ों की टाँगों में बिल्कुल छिप गया। सबके बाद शलवार-क़मीज़ पर रुईदार रंगीन शेरवानियों जैसे चोले पहने दो रेफ़री अपने घोड़ों पर सवार दाएँ-बाएँ आ खड़े हुए।
तभी सम्राट के संकेत पर पिस्तौल दग़ा और हठात बारह-के-बारह घोड़े अगली दोनों टाँगें उठाए ऐसे अलिफ़ खड़े हो गए कि तमाशाइयों के दिल धड़क उठे। सर्कस में पिछली टाँगों पर खड़े होने वाले घोड़ों और इन घोड़ों में फ़र्क था। सर्कस के घोड़े इशारे से चुपचाप अलिफ़ खड़े हो जाते हैं, फिर दूसरे इशारे पर टाँगे ज़मीन पर टेक देते हैं, जबकि ये घोड़े बिफरकर अलिफ़ हो गए थे और आतंकित करते थे।
तभी क्या हुआ कि भूरी वर्दी वाली टीम के दो घोड़ों ने सबसे पहले सीधे होकर बिजली की-सी गति से बकरे की दोनों तरफ़ से दायरे को काट दिया और उनके बीच के साथी ने बढ़कर घोड़े पर चढ़े-चढ़े, एक ओर झुककर, घोड़ों की टाँगों के बीच से, बकरे को पिछली टाँग से उठा लिया और घोड़ा मोड़कर दाईं ओर को भाग निकला। खेल के नियमानुसार पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर उसे फिर बकरे को बहीं दायरे में फेंकना था।
सभी उसके पीछे भागे, पर तभी हरी वर्दी वाले एक सवार ने सबसे जागे बढ़कर उसे जा लिया और बकरे की दूसरी टाँग पकड़ ली और उससे छीनने के प्रयास में उसे अपनी ओर खींचता हुआ, उसके साथ-साथ भागने लगा। दोनों घोड़ों के बीच बकरे का डोलता कबंध और उसकी दोनों टाँगें और उन्हें अपनी-अपनी ओर खींचते हुए प्रतिद्वंद्वी! कौन जीतता है? स्टेडियम की उस ओर के तमाशाई सीढ़ियों पर खड़े हो गए।
स्टेडियम के सिरे पर पहुँचकर दोनों सवार उसी स्थिति में मुड़े और फिर साथ-साथ भागने लगे—एक हाथ में लगाम थामे, दूसरे में बकरे की टाँग पकड़े, अपनी-अपनी ओर खींचते हुए—इस प्रयास में दोनों झुक-झुक जाते, गिरने-गिरने को हो जाते, लेकिन बकरे को नहीं छोड़ते।—कैसे सधे हुए घोड़े, कैसे सधे हुए सवार! मैं चकित देखता रह गया। बकरे को अपनी ओर खींचते हुए वे इतने झुक जाते कि तमाशाइयों का कलेजा मुँह को आने लगता और ये सीटों पर खड़े हो जाते।
ये दोनों स्टेडियम से पलटकर थोड़ी ही दूर आए थे कि दूसरे ने बकरे को पहले ही गिरफ़्त से छुड़ा लिया और घोड़ा बढ़ाकर सरपट भागा। सभी उसके पीछे हो लिए। पर तभी पहली टीम के पाँचवें सवार ने बढ़कर एक ही झटके में बकरे को प्रतिद्वंद्वी की गिरफ़्त से छुड़ा लिया और इससे पहले कि कोई उसे पकड़ता, वह मोड़ लेकर सरपट भागता आया और उसने बकरे को गोल दायरे में फेंक दिया।
दुर्भाग्य से बकरा आधा दायरे के बाहर रह गया। दर्शक उत्साह में तालियाँ बजाते हुए सीटों से उठे थे कि बैठ गए। तालियाँ जैसे शुरू हुई थी, उसी तरह अचानक बंद हो गईं। तमाशाई फिर अपनी सीटों पर बैठ गए।
तब दूसरी टीम के एक सवार ने बढ़कर बकरे को उठाया, लेकिन इससे पहले कि वह मुड़कर उसे ठीक से दायरे में फेंकता, भूरे कॉर्डराय वाली टीम का छठा सवार सरपट घोड़ा दौड़ाता आया और बिना रुके, एक ही झटके से बकरे की टाँग पकड़, उसे छुड़ाकर ले गया। मैंने देखा कि उसने बकरे को ऊपर खींचकर उसकी टाँग को ज़ीन से दबा लिया है। लेकिन वह बहुत दूर नहीं गया था कि दूसरी टीम के एक सवार ने उसे जा लिया और बकरे की दूसरी टाँग पकड़ ली। अब फिर दोनों बकरे की एक-एक टाँग पकड़े, स्टेडियम का चक्कर लगा गए। पर उस जवान ने बकरे की टाँग को ऊपर करके ऐसे ज़ीन से कस लिया था कि हरी वर्दी वाला सवार लाख कोशिश करने पर भी उसे छुड़ा नहीं पाया, बल्कि उसकी गिरफ़्त ढीली होते ही भूरी वर्दी वाले ने उसे छुड़ा लिया और मोड़ देकर, यह दौड़ता आया और उसने बकरा ऐसे फेंका कि वह ऐन दायरे के मध्य गिरा। तमाशाई जोश से खड़े हो गए और सारा स्टेडियम करतल ध्वनि कर उठा।
विजेता ने आकर सम्राट के हुज़ूर में सलामी दी। उसके फ़ोटो लिए गए और दूसरी टीमें मैदान जाने की तैयारी करने लगीं।
मैंने जिस आसानी से यह खेल बयान कर दिया है, उतना आसान वह नहीं है। ख़ासा खूँख़ार और जोखिम-भरा है। छोटे से दायरे में से, घोड़ों पर बैठे-बैठे, ज़मीन पर पड़ा हुआ बकरा झुककर उठा लेना, सरपट भागते हुए दूसरे के हाथ से बकरा छीनने की कोशिश करना...इतना झुक जाना कि दर्शकों का कलेजा मुँह को आ जाए, लेकिन फिर सीधे होकर बकरा छुड़ाकर भागते आना और उसे ऐन दायरे में फेंक देना...घोड़े और सवार दोनों से असाधारण दक्षता की माँग करता है। दोनों में से किसी की ज़रा-सी चूक सवार को पीछे सरपट आते घोड़ों के पैरों तले कुचले जाने के लिए मैदान में फेंक सकती है। खेल के दौरान बार-बार दर्शक उठे और बैठे और न जाने कितनी बार उन्हें रोमांच हो आया।
लेकिन दो मैचों के बीच अंतराल में मैंने अपनी कुर्सी के पीछे बैठे एक साहब से अँग्रेज़ी में पूछ लिया कि इस खेल की शुरुआत कैसे हुई? उन्होंने जो उत्तर दिया, उसके कारण मैं दूसरे मैच में ज़रा भी रस नहीं ले सका और मेरा दिमाग़ निरंतर भटकता रहा।
वे साहब किसी व्यापारिक एजेंसी के उच्चाधिकारी थे और कई बर्षों से काबुल में जमे थे। उन्होंने बताया कि इस खेल की शुरूआत चंगेज़ ख़ां के ज़माने में हुई थी, जब बकरे के बदले विजित शत्रु दल के सेनानायक का सिर काटकर उसका शव दायरे में रखा जाता था।
न जाने इस बात में कितना सच था, पर दूसरी बार जब खेल शुरू हुआ और सिर-कटा बकरा दायरे में रखा गया तो मुझे लगा कि बकरा नहीं, वहाँ सिर-फटे सेना-नायक का शव पड़ा है और जिस विचार-संसर्ग से बकरे की जगह सेना-नायक ने ले ली, उसी से तमाशाइयों का स्थान बकरों ने ने लिया। मुझे लगा कि इंसान नहीं, सीढ़ियों पर पंक्तिबद्ध बैठे बकरे इंसान की यह दुर्दशा देख रहे हैं।
दूसरे क्षण अपनी इस कल्पना पर मुझे हँसी आ गई और सिर को झटका देकर मैंने खेल में ध्यान लगाने का प्रयास किया। लेकिन बार-बार मेरी कल्पना भटक गई। एक बार जब बकरे को एक-एक टाँग से पकड़े दो प्रतिद्वंद्वी उसे अपनी ओर खींचते भागे जा रहे थे, बकरे का स्थान फिर सिर-फटे सेना-नायक ने ले लिया और मुझे लगा कि दोनों घुड़सवार उसकी एक-एक टाँग अपनी ओर खींच रहे हैं और उसका बेजान कबंध दो घोड़ों के बीच डोल रहा है और बीच से चिरा जा रहा है।
मैंने निमिष भर को आँखें बंद कर लीं। सिर को फिर ज़ोर से झटका दिया और उठकर बालकनी के किनारे जा खड़ा हुआ और खेल देखने लगा। लेकिन मेरी कल्पना ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। अपने दादा से सुनी कहानियों से हिंसा के विरुद्ध मन में बैठे मेरे संस्कार उस खेल को बकरे की आँखों से देखने लगे और मेरा सारा ज्ञान-विज्ञान और यथार्थ-दृष्टि हवा हो गई। जब आख़िर एक सवार ने बकरे को सबसे बचाकर दायरे में जा फेंका तो मुझे लगा कि वहाँ सेना-नायक का शव पड़ा है और सीढ़ियों में पिछली टाँगों पर खड़े होकर बकरे बेतहाशा तालियाँ पीट रहे हैं। मैंने फिर सिर को झटका दिया और अपनी जगह आ बैठा।
विजेता अपने चंचल घोड़े पर सवार सम्राट के सामने आ खड़ा हुआा। उसका घोड़ा निश्चल न रह पा रहा था। पैर पटक रहा था। विजेता ने सम्राट को सलामी दी। सम्राट ने कुछ कहा। शायद कुछ इनाम की घोषणा की। उसने दाँत चियार दिए। सभी मॉर्विड विचारों को दिमाग़ से हटाकर मैंने उसे ध्यान से देखा—चौड़ा माथा, रूखा और बर्बर चेहरा, पीले दाँत। उसकी कॉर्डराय की अनगढ़ क़मीज़ के बटन खुले थे, जिसमें से पसीने से तर उसका चौड़ा बलिष्ठ सीना झाँक रहा था...उसका सारा व्यक्तित्व उसके निपट निरक्षर किसान होने की चुग़ली खाता था। लगता ही नहीं था कि उस खुरदरे, बर्बर व्यक्ति ने किसी मदरसे की शक्ल तक भी देखी है। इसके बावजूद जब उसने सम्राट की घोषणा के उत्तर में दाँत चियार दिए, तो उसके उस बर्बर बेहरे पर कुछ ऐसी निरीहता और बेबसी आ गई कि वह चेहरा हमेशा-हमेशा के लिए मेरे मन पर अंकित हो गया...कौन रौंदा जा रहा था?...बकरा या इंसान!...उस क्षण मुझे दोनों में कोई अंतर नहीं दिखाई दिया।
तभी सम्राट उठे। पलक झपकते बराबर का खंड ख़ाली हो गया। उस दिन दो ही मैच होने थे। हम बालकनी से नीचे उतरे। शाम ढल आई थी, हालाँकि अभी काफ़ी उजेला था, लेकिन हवा एकदम खुनक हो गई थी। मालूम हुआ कि काबुल में दिन ख़ासे गर्म होते हैं, लेकिन शाम को तापमान एकदम गिर जाता है और रात कड़ाके की सर्दी पड़ती है।
मेरे साथी घुड़सवारों की दक्षता और घोड़ों के सधाव की चर्चा कर रहे थे, लेकिन में उनकी बातचीत में कोई भाग नहीं ले सका। मेरा मन बेहद उदास हो आया। मेरे सामने बार-बार वही दृश्य आने लगे, जो मेरी कल्पना ने दूसरे खेल के दौरान देखे थे।...यह अजीब बात है कि मैं रूस हो आया। इन बारह-तेरह वर्षों में सारा हिंदुस्तान घूम आया। मैंने बीसियों नए दृश्य देखे, लेकिन जब भी मुझे कभी काबुल में बुज़कशी के उस मैच की याद आती है, मेरी कल्पना में यही वही दृश्य आने लगते हैं, मेरा दिमाग़ ख़राब हो जाता है और मैं सोचने लगता हूँ...बुज़कशी क्या काबुल में ही होती है? न जाने दुनिया में और कहाँ-कहाँ होती है, फ़र्क यही है कि बकरों की जगह इंसान खींचे और छीने और रौंदे जाते हैं। आदमी कभी इंसान बनेगा भी? कभी पूरी तरह संस्कृत भी होगा? उसकी बर्बरता और पर-यंत्रणा-प्रियता कभी ख़त्म भी होगी या वह पशु-का-पशु रहेगा?...लाखों वर्ष बीत गए उसे जंगलों से निकले और वह आज भी जंगली-का-जंगली है।
और मेरा मन काबुल की उसी ठंडी शाम-सा उदास हो आता है।
- पुस्तक : अश्क 75 द्वितीय भाग (पृष्ठ 93)
- रचनाकार : उपेन्द्रनाथ अश्क
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 1986
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