प्रायश्चित पर दोहे
किसी दुष्कर्म या पाप
के फल भोग से बचने के लिए किए जाने वाले शास्त्र-विहित कर्म को प्रायश्चित कहा जाता है। प्रायश्चित की भावना में बहुधा ग्लानि की भावना का उत्प्रेरण कार्य करता है। जैन धर्म में आलोचना, प्रतिक्रणण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना—नौ प्रकार के प्रायश्चितों का विधान किया गया है।
खोयो मैं घर में अवट, कायर जंबुक काम।
सीहां केहा देसड़ा, जेथ रहै सो धाम॥
सिंहों के लिए कौनसा देश और कौनसा परदेश! वे जहाँ रहें, वहीं उनका घर हो जाता है। किंतु खेद है कि मैंने तो घर पर रहकर ही सियार के से कायरोचित कामों में अपनी पूरी उम्र बिता दी।
जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार॥
हे भ्रमर! जिन दिनों तूने वे सुंदर तथा सुगंधित पुष्प देखे थे, वह बहार बीत गई। अब (तो) गुलाब में बिन पत्ते की कंटकित डाल रह गई है (अब इससे दुःख छोड़ सुख की सम्भावना नहीं है)।
धिक मो कहँ बचन लगि, मो पति लह्यो विराग।
भई वियोगिनी निज करनि, रहूँ उड़वति काग॥
मुझे धिक्कार है, मेरे वचन लग जाने के ही कारण मेरे पति मेरे प्रति अनासक्त हो गए। इस प्रकार अपनी करनी से ही मैं वियोगिनी बनकर काक उड़ाती रहती हूँ।
हों न नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।
चरनन दासी जानि निज, वेगि भोरि सुधि लेउ॥
हे प्राणनाथ! मैं अपराधिनी नहीं हूँ। यदि आपकी दृष्टि में अपराधिनी हूँ, तो भी मुझे क्षमा कर दीजिए। अपने चरणों की दासी (अपनी भार्या) समझकर त्वरित ही मेरी सुध लीजिए।
छमा करहु अपराध सब, अपराधिनी के आय।
बुरी भली हों आपकी, तजउ न लेउ निभाय॥
मुझ अपराधिनी के सारे अपराधों को आप छमा कीजिए। मैं बुरी हूँ या भली हूँ, जैसी भी हूँ आपकी हूँ, अतः मेरा त्याग न कीजिए और मुझे निभा लीजिए।
सनक सनातन कुल सुकुल, गेह भयो पिय स्याम।
रत्नावली आभा गई, तुम बिन बन सैम ग्राम॥
हे प्रिय! सनक ऋषि का सुकुल कुल अब श्याम हो गया है। मुझ रत्नावली की भी सभी प्रकार की कांति आपके बिना चली गई है और उसके लिए ग्राम भी, हे कांत! आपके बिना कांतार सम हो गया है।
दीन बंधु कर घर पली, दीनबंधु कर छांह।
तौउ भई हों दीन अति, पति त्यागी मो बाहं॥
मैं दीनबंधु पिता के घर में पली और दीनबंधु (दिनों के बंधु पूज्य पति तुलसी) के कर कमलों का आश्रय रहा। फिर भी मैं अत्यंत संतप्त हो गई क्योंकि पति (श्री तुलसीदास जी) ने मेरी बाँह छोड़ दी।
सुबरन पिय संग हों लसी, रत्नावलि सम काँचु।
तिही बिछुरत रत्नावलि, रही काँचु अब साँचु॥
मैं रत्नावली कांच के समान होते हुए भी पति के साथ स्वर्ण के समान शोभाशाली थी, किंतु उनके वियोग होने पर तो अब मैं कांच ही रह गई।
कर गहि लाए नाथ तुम, वादन बहु बजवाय।
पदहु न परसाए तजत, रत्नावलिही जगाय॥
हे नाथ! आप अनेक प्रकार के बाजे बजवाकर और मेरा कर ग्रहण कर लाए थे, परंतु आपने मुझे तजकर जाते समय जगाकर पैर भी न छुवाए।
हाय सहज ही हों कही, लह्यो बोध हिरदेस।
हों रत्नावली जँचि गई, पिय हिय काँच विसेस॥
मैंने अपनी बात स्वाभाविक ढंग से कही थी ,किंतु हृदयेश (तुलसीदास जी) ने इससे ज्ञान प्राप्त कर लिया। उस ज्ञान के प्रभाव से मैं उनके हृदय में काँच के समान प्रतीत हुई।
नाथ रहौंगी मौन हों, धारहू पिय जिय तोष।
कबहूँ न देउँ उराहनौ, देउँ कबहूँ ना दोष॥
हे नाथ! मैं अब मौन रहूँगी, अतः हे प्रिय! मन में संतोष धारण कीजिए। मैं आपको उपालंभ नहीं दूँगी और ना कभी आपको किसी बात के लिए दोष दूँगी।
हाय बदरिका नाम गई, हों बामा विष वेलि।
रत्नावली हों नाम की, रसहिं दयो विष मेलि॥
हाय! बदरिका रूपी विपिन में मैं स्त्री विष बेल के समान उत्पन्न हुई। मैं नाम की ही रत्नावली (मणिमाला) हूँ, मैंने तो इसमें विष मिला दिया।
जनमि बदरिका कुल भई, हों पिय कंटक रूप।
विंधत दुखित ह्वै चलि गए, रत्नावली उर भूप॥
मेरा जन्म बदरिका के गृह में हुआ, अतएव पति के लिए मैं काँटे के समान हो गई। मेरी स्वाभाविक वाणी से बेधित होकर मुझ रत्नावली के हृदय के राजा (तुलसीदास जी) व्यथित होकर चले गए।
तरनापो इउँही गइओ, लिइओ जरा तनु जीति।
कहु नानक भजु हरि मना, अउधि जाति है बीति॥
जतन बहुत मैं करि रहिओ, मिटिओ न मन को मान।
दुर्मति सिउ नानक फँधिओ, राखि लेह भगवान॥
खात पियत बीती निसा, अँचवत भा भिनुसार।
रूपकला धिक-धिक तोहि, गर न लगायो यार॥
करणो हुतो सु ना किओ, परिओ लोभ के फंद।
नानक समये रमि गइओ, अब क्यों रोवत अंध॥
तनु धनु जिह तोकउ दिओ, तासिउ नेहु न कीन।
कहु नानक नर बावरे, अब किउ डोलत दीन॥
रवि-रथांग सों झगरि जो, खेलति ही फहराय।
वह भारत की जय-ध्वजा, लुंठित भूमितल हाय॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere