पुनर्जन्म पर दोहे

भारतीय धार्मिक-सांस्कृतिक

अवधारणा में पुनर्जन्म मृत्यु के बाद पुनः नए शरीर को धारण करते हुए जन्म लेना है। यह अवधारणा अनिवार्य रूप से भारतीय काव्य-रूपों में अभिव्यक्ति पाती रही है। प्रस्तुत चयन उन कविताओं का संकलन करता है, जिनमें इस अवधारणा को आधार लेकर विविध प्रसंगों की अभिव्यक्ति हुई है।

जो जानहु जिव आपना, करहु जीव को सार।

जियरा ऐसा पाहुना, मिले दूजी बार॥

यदि जीव को अपना स्वरूप समझते हो, तो उसे पूर्णत: प्रमाणित सर्वोच्च सत्ता समझो और उसका स्वागत करो। जीव मानव शरीर में ऐसा पाहुना है, जो लौटकर पुन: इसमें नहीं आएगा।

कबीर

मानुष तैं बड़ पापिया, अक्षर गुरुहि मान।

बार-बार बन कूकुही, गर्भ धरे और ध्यान॥

हे भूला मानव! तू बड़ा पापी है जो गुरु के दिए हुए अविनाशी स्वरूप के उपदेश को नहीं मानता और नाशवान देहादि में पचता है। जैसे बनमुरगी बारम्बार गर्भ धारणकर अंडे देती है और उन्हीं के सेने में ध्यान रखती है, वैसे तू भी देह, गेह परिवार आदि का अहंकार कर उन्ही की सुरक्षा में सदैव ध्यान रखता है और अविनाशी निर्भय स्थिति से दूर रहता है।

कबीर

बार-बार नहिं पाइये, सुन्दर मनुषा देह।

राम भजन सेवा सुकृत, यह सोदा करि लेह॥

सुंदरदास

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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