चुंबन पर दोहे
चुंबन प्रेमाभिव्यक्ति
का एक ख़ास स्पर्श है और बेहद नैसर्गिक है कि हर युग हर भाषा के कवि इसके अहसास की अभिव्यक्ति को प्रवृत्त हुए हैं। इस चयन में चूमने के प्रसंगों के साथ प्रेम के इर्द-गिर्द डूबती-इतराती कविताएँ हैं।
सागर तट गागर भरति, नागरि नजरि छिपाय।
रहि-रहि रुख मुख लखति क्यों, कह जमाल समुझाय॥
सामान्य अर्थ :वह स्त्री सरोवर तट पर अपनी गागर भरते समय सबकी आँख बचाकर बार-बार अपना मुख पानी में क्यों देखती है?
गूढ़ार्थ : वह अपने मुख पर पड़े पिय के दंतक्षत के चिह्न सबकी दृष्टि से छिपा कर पानी में देख रही है।
सुदुति दुराई दुरति नहिं, प्रगट करति रति-रूप।
छुटैं पीक, औरै उठी, लाली ओठ अनूप॥
नायिका से उसकी सखी कहती है कि हे सखी, दंतक्षत की सुंदर शोभा बहुत प्रयास करने पर भी छिप नहीं पा रही है। तेरे अधरों पर लगे ये दंतक्षत रति-प्रसंग की स्थिति को स्पष्ट कर रहे हैं। पहले तो तूने इन दंतक्षतों को पीक से छिपा लिया था, किंतु अब पीक के सूखने पर अधरों की क्षत-जनित अद्भुत लालिमा उभर आई है। अत: सारा रति-रहस्य व्यक्त हो गया है।
झपकि रही, धीरें चलौ, करौ दूरि तें प्यार।
पीर-दब्यौ दरकै न उर, चुंबन ही के भार॥
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere