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धूल पर उद्धरण

इस चयन में प्रस्तुत

‘कैसी धूल भरी निर्जनता छाई हुई है चारों ओर’ और ‘किसी चीज़ को रखने की जगह बनाते ही धूल की जगह भी बन जाती’ जैसी कविता में व्यक्त अभिव्यक्तियों के साथ ही आगे बढ़ने की सहूलत लें तो धूल का ‘उपेक्षित लेकिन उपस्थित’ अस्तित्व हमें स्वीकार कर लेना होगा। इस संकलन में प्रस्तुत हैं—धूल के बहाने व्यक्त कुछ बेहतरीन कविताएँ।

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मेरी आत्मा को छोड़कर, हर चीज़, धूल का हर कण, पानी की हर बूँद, भले ही अलग-अलग रूपों में हो, अनंत काल तक अस्तित्व में रहती है?

अमोस ओज़
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किसी प्रगतिशील जाति के जीवन में सजीव शक्ति बने रहने के लिए महाकाव्य को मंद गति से परिवर्तनशील ग्रंथ होना ही चाहिए। परिशोधन और विस्तार तो इस बात के बाह्य संकेत मात्र हैं कि यह प्रेरणा देने और मार्गदर्शन करने वाला ग्रंथ रहा है, कि पुस्तकों की धूल-धूसरित अलमारी में पड़ा अप्रुक्त तथा विस्मृत ग्रंथ।

विष्णु सीताराम सुकथंकर
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विपक्ष का विनाश किए बिना प्रतिष्ठा दुर्लभ रहती है। धूलि को कीचड़ बनाए बिना पानी नहीं ठहरता।

माघ

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere