भ्रमरगीत पर दोहे

प्रस्तुत चयन में भ्रमरगीत

काव्य-परंपरा की रचनाओं का संकलन किया गया है।

नंदलाल संग लग गए, बुध बिचार बर ज्ञान।

अब उपदेसनि जोग ब्रज, आयो कौन सयान॥

ब्रज में उपदेश देने के लिए उद्धव को आया जानकर गोपियाँ परस्पर कहती हैं कि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान पहले ही श्रीकृष्ण के साथ चले गए, अब यहाँ ऐसा कौन है जो किसी का उपदेश सुन सके! फिर जाने कोई चतुर हमें उपदेश देने क्यों आया है। भाव यह कि हम यहाँ उद्धव के निर्गुणवाद का उपदेश नहीं सुनना चाहती।

रसनिधि

पगीं प्रेम नंदलाल कैं, हमैं भावत जोग।

मधुप राजपद पाइकै, भीख माँगत लोग॥

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे भ्रमर! श्रीकृष्ण के प्रेम में तन्मय हुई हमें तुम्हारी यह योग की बातें अच्छी नहीं लगतीं। राज्य-पद को पाकर भला भीख माँगना किसको अच्छा लगेगा। भाव यह है कि जैसे राज्य पाकर कोई भीख नहीं माँग सकता वैसे ही श्रीकृष्ण के प्रेम के सामने तुम्हारे योग की बातें भी हमें अच्छी नहीं लगतीं।

मतिराम

को अवराधे जोग तुव, रहु रे मधुकर मौन।

पीतांबर के छोर तैं, छोर सकैं मन कौन॥

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि यहाँ तुम्हारे बताए हुए योग की आराधना कौन करे अर्थात कोई नहीं कर सकता। इसलिए तुम यहाँ योग की चर्चा मत करो और दूर हो जाओ। भला हमारे मन को पीतांबरधारी श्रीकृष्ण के पल्ले से कौन छुड़ा सकता है!

रसनिधि

छोड़ि नेह नंदलाल कौ, हम नहिं चाहति जोग।

रंग बाति क्यों लेत हैं, रतन-पारखी लोग॥

गोपियाँ योग का उपदेश देने आए हुए उद्धव को कहती हैं कि श्रीकृष्ण के प्रेम को छोड़कर हमें तुम्हारा यह योग अच्छा नहीं लगता। भला रत्नों के परीक्षक जौहरी लोग असली रत्नों को छोड़कर नक़ली रत्न क्यों लेंगे!

मतिराम

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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