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दिलरस

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प्रियंवद

अन्य

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    पतझड़ गया था।

    उस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं बचा था। बाजरे की कलगी के एक-एक दाने को जैसे तोता निकाल लेता है, उसी तरह पतझर ने हर पत्ते को अलग कर दिया था। पेड़ की पूरी कत्थई शाखाएँ बिलकुल नंगी थीं। ओस की बूंदों में भीगने के बाद उसकी खुरदुरी, गड्ढेदार पुरानी छाल धूप में बहुत साफ़ दिखती थी।

    लड़का सुबह छत पर गमले के पौधों को पानी देने आया। उसकी निगाह पेड़ पर पड़ी। उसने पहली बार पेड़ को इस तरह नंगा देखा था। हालांकि पतझर हर साल आता था, हर साल बाजरे की कलगी की तरह उसका हर पत्ता अलग कर देता था, हर साल उसकी शाखाएँ इसी तरह नंगी हो जाती थीं, पर लड़के की निगाह नहीं पड़ी थी। इस साल पड़ी थी। उसने इतना बड़ा, ऊँचा और ऐसा बिना पत्तों वाला पेड़ भी पहले कभी नहीं देखा था। इस साल देखा था। उसकी भूरी, कत्थई शाखाएँ उसे मेलों में आने वाले तपस्वी की जटाओं की तरह लगीं। पौधें को पानी देना भूलकर वह उन जटाओं को देखने लगा।

    पेड़ को देखते हुए, उसकी नज़र शाखाओं के बीच की खाली जगह पर गई। खाली जगह से उसे कुछ दूर पर एक आँगन का चौकोर हिस्सा दिखा। उस चौकोर हिस्से पर एक लड़की खड़ी थी। वह भी हैरानी से पेड़ को उधर से देख रही थी। नंगी शाखाओं की खाली जगह से उसे भी देख रही थी। दो लोग एक साथ एक ही समय उन कत्थई भूरी शाखाओं को देख रहे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। उन शाखाओं के बीच से वे एक दूसरे को भी देख रहे थे, एक-दूसरे को उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था।

    लड़की रस्सी पर सूखते कपड़े उठाने आई थी। कपड़े उठाकर वह चली गई। उसके जाने के बाद आँगन की चौकोर जगह खाली हो गई। लड़के ने अब पूरे आँगन को देखा। एक ओर किनारे पर नीची छत थी। उस पर बड़ा-सा धुआँरा बना था। वह जरूर रसोई होगी लड़के ने सोचा। दूसरी ओर उतनी ही नीची छत वाली कोठरियां बनी थीं। वह जरूर अनाज और दूसरे सामान रखने की जगह होगी, लड़के ने सोचा। तीसरी ओर कम ऊँचाई वाला नल लगा था। इस पर कपड़े धोए जाते होंगे, लड़के ने सोचा। चौथी ओर रस्सी बंधी थी। उस पर कपड़े सूखते थे। लड़के ने देखा था। पेड़ के टूटे मटमैले पत्ते रसोई और कोठरियों की छतों पर पड़े थे। वे बहुत ज़्यादा थे। इतने ज़्यादा कि उन्होंने छत को ढक लिया था। इतने ज़्यादा लड़के ने सिर्फ़ तारे देखे थे। वे भी कभी-कभी आसमान को ढक लेते थे। पत्ते एक दूसरे के ऊपर लदे हुए थे। तारे एक दूसरे के ऊपर नहीं लदते होंगे लड़के ने सोचा। लड़की के जाने के बाद आँगन का वह चौकोर हिस्सा बहुत खाली लग रहा था। लड़के ने लड़की को ठीक से नहीं देखा था। वह सोच रहा था। पौधें के पानी देने से पहले लड़की एक बार और जाए तो उसे ठीक से देख ले। लड़की अचानक आँगन में गई। उसी जगह खड़ी होकर गीले कपड़े सुखाने लगी। ऐसा करते हुए वह शाखाओं के पार लड़के को देख रही थी। इस बार लड़के ने उसे ठीक से देखा। वह उसकी उम्र की ही थी। कसी देह वाली। भरे बादल जैसी साँवली। उसके खुले बाल कंधों पर गिरे हुए थे। लड़की ने अभी रात को सोने वाले कपड़े ही पहने हुए थे। पीले फूलों वाला एक ढीला पायजामा और उन्हीं फूलों वाली एक ऊँची कमीज़। दोनों एक ही कपड़े से बने थे। कमीज कुछ ज़्यादा ऊँची थी। वह कमर के नीचे के भारीपन को ढक नहीं पा रही थी।

    लड़की सोकर उठी थी। उसके कपड़ों पर अभी रात की सलवटें थीं। उसकी चाल में आलस्य था। तीसरा कपड़ा सुखाते हुए उसने दो बार जमुहाई ली। जमुहाई लेते समय दोनों बार उसका मुँह थोड़ा ही खुला। लड़के को उसके दाँत नहीं दिखे। अनार के दानों की तरह होंगे लड़के ने यूं ही सोच लिया। लड़की जब रस्सी पर कपड़े टांगती तो उसकी बांहें उठ जातीं। उठी बांहों के नीचे लड़के ने होली के पानी भरे दो छोटे गुब्बारे देखे। गोल कलाइयों पर दो डोरे बंधे देखे।

    जब तक लड़की कपड़े सुखाती रही, शाखाओं के बीच से लड़के को देखती रही। लड़का भी शाखाओं के बीच से लड़की को देख रहा था। उसने पहले कभी कपड़े सुखाती लड़की नहीं देखी थी। लड़के को लगा कि वह रस्सी पर कपड़े कुछ जल्दी डाल सकती थी। लड़की देर कर रही थी। कुछ देर में लड़की ने सब कपड़े रस्सी पर फैला दिए। तभी पेड़ की शाख से रसोई की छत पर एक मोटा बंदर धम्म से कूदा। लड़की डर कर अंदर भाग गई। लड़के ने बंदर को एक गाली दी, फिर गमले के पौधों में पानी डालने लगा।

    लड़का दसवें पौधे को पानी दे रहा था, उसने ‘हट... हट...’ की आवाज़ सुनी। उसने घूमकर देखा। आँगन के कोने में लड़की एक छोटी लकड़ी लिए बंदर को भगा रही थी। लड़की डर रही थी कि बंदर कहीं कपड़े उठा ले। लकड़ी पतली और छोटी थी। बंदर मोटा और जिद्दी था। बंदर पर उसकी ‘हट... हट...’ का कोई असर नहीं पड़ा। सूखे पत्तों के बीच उसे एक रोटी मिल गई थी। रोटी मुँह में दबाकर उसने लकड़ी हिलाती हुई लड़की को एक घुड़की दी। चीखकर लड़की अंदर भाग गई। बंदर हँसता हुआ रोटी चबाने लगा। लड़का हँसता हुआ ग्याहरवें पौधे में पानी देने लगा।

    जब तक बंदर बैठा था, लड़की आने वाली नहीं थी। आख़िरी पौधे में पानी देने के बाद लड़के के पास खाली समय था। इस खाली समय में लड़के ने मुंडेर पर कोहनियाँ टिकाईं और पेड़ और उसके चारों ओर देखने लगा। पेड़ बहुत ऊँचा था। उसके नीचे कई छोटे-छोटे घरों की छतें थीं। इन घरों के बाहर बड़ी खुली जगह थी। इसमें लकड़ियों की एक टाल थी। घरों की छतों पर भी पेड़ के टूटे पत्ते पड़े थे। पेड़ कहाँ से निकला था, यह लड़के की छत से समझ में नहीं आता था। लड़के की छत से लकड़ी का टाल का खुला मैदान दिख रहा था। उसके एक कोने पर कटी हुई लकड़ियों के छोटे-छोटे अलग ढेर लगे थे। एक ओर पेड़ों की पतली, बिखरी हुई टहनियाँ पड़ी थीं। उनके पास लकड़ियाँ तौलने का बड़े पलड़े वाला तराज़ू लटक रहा था। उसके पीछे छोटी कोठरी बनी थी। उस पेड़ की शाखाएँ लकड़ी के टाल के कुछ हिस्से तक फैल गई थीं। आँगन इन्हीं के पीछे था। पेड़ के दूसरी ओर एक दीवार के पीछे छोटी-सी खुली जगह दिख रही थी। वहाँ एक गाय बंधी थी। उसके सामने खाने के लिए मिट्टी का बड़ा नांद रखा था। उसके अंदर चारा पड़ा था। गाय का बछड़ा उससे सटा खड़ा था। चारखाने वाला अंगोछा पहने एक आदमी गाय का दूध निकालने की तैयारी कर रहा था। वहीं से उठता हुआ काला धुआँ पेड़ तक रहा था।

    लड़के को पेड़ का तना उस खुली जगह तक जाता दिख रहा था। फिर दीवार थी। तने के चारों ओर और भी छोटी छतें और दीवारें थीं। पेड़ कहाँ से निकला था, यह छत से पता नहीं लगता था। बंदर अभी रोटी खा रहा था। आँगन अभी खाली था। लड़के ने नज़र घुमाकर आँगन की तरफ़ देखा। रसोई की छत पर दो बंदर और गए थे। पत्तों में रोटी तलाशते हुए वे आँगन की तरफ़ बढ़ रहे थे। लड़की अब और ज़्यादा डर गई होगी, लड़के ने सोचा। बंदरों के जाने के बाद भी अब देर तक वह आँगन में नहीं आएगी। धूप तेज़ होने लगी थी। लड़का उदास हो गया। उदास होकर वह छत से नीचे गया।

    दोपहर को लड़का फिर छत पर आया। वह पहले कभी दोपहर को नहीं आया था। उसे छत पर जाते देखकर माँ ने टोका। ‘सुबह पौधें को पानी कम दिया था’, लड़का बोला।

    ‘धूप में पानी देने से पौधे जल जाते हैं’, माँ बोली।

    लड़के ने माँ की बात नहीं मानी। वह छत पर गया। उसने आँगन की तरफ़ देखा। आँगन खाली था। कुछ देर धूप में खड़ा वह आँगन देखता रहा। अचानक उसे लड़की दिखी। सिर झुकाए रसोई से निकली और आँगन से होती हुई दूसरी ओर चली गई। उसके हाथों में ट्रे थी। ट्रे पर खाने के बर्तन रखे थे। कुछ क्षण बाद वह रसोई में लौटी। उसके हाथ अब ख़ाली थे। उसे पता नहीं था कि लड़का छत पर है। लड़के की परछाई इतनी बड़ी नहीं थी कि उसके आँगन तक पहुंच जाती। लड़के की गंध इतनी तेज नहीं थी कि वह सूँघ लेती। लड़के की धड़कनें इतनी तेज़ नहीं थी कि वह सुन लेती। लड़का इतना पास नहीं था कि वह देख लेती। पहले की तरह ही सिर झुकाए वह फिर रसोई से निकली। इस बार उसके हाथ में प्लेट थी। प्लेट पर रोटी थी। आँगन के दूसरी ओर वह गई। फिर लौटी। अब उसकी प्लेट खाली थी। लड़का समझ गया रसोई में कोई रोटी सेंक रहा है। लड़की आँगन के पार कमरे में किसी को खाना खिला रही है।

    लड़का मुंडेर पर कोहनियाँ टिकाकर खड़ा हो गया। लड़की ने तीन चक्कर लगाए। आख़िरी चक्कर में वह ट्रे पर सब बर्तन लेकर वापस लौटी। ट्रे रसोई में रखकर फिर लौटी। आँगन के तल पर उसने हाथ धोए। पाँव भी धोए। पाँव धोने के लिए उसने पायजामा थोड़ा ऊपर उठाया। लड़के ने उसकी गुदाज पिंडलियाँ देखीं। पंजों में दो साँवले मुलायम ख़रगोश देखे। लड़की अंदर चली गई। धूप बहुत तेज़ हो गई। छत के फ़र्श पर लड़के के तलुए जलने लगे। माँ ने नीचे से आवाज़ दी। पौधों को जलाने के लिए कोसा। उनकी बद्दुआओं से डराया। लड़का डर गया। डरकर नीचे गया।

    शाम को लड़का फिर छत पर आया। आँगन खाली था। उसने देर तक आसमान में उड़ती पतंगे देखीं, खेतों से लौटते तोते देखे, चिमनियों से निकलता धुँआ देखा, चर्च की मीनार के गले में

    लॉकेट-सा लटका पीला चाँद देखा, घरों में जलते चूल्हों की लपट देखी, उन पर सिंकती रोटियाँ देखीं, ख़ूब सारे तारे देखे...फिर नीचे गया।

    सुबह के इंतिज़ार में लड़का ठीक से सो नहीं पाया। जनाज़े में गैसबत्ती किराए पर देने वाले के मुर्गे की बांग से वह उठ गया। खिड़की का पर्दा हटाकर उसने देखा। अभी अँधेरा था। उसने घड़ी देखी। सुबह के तीन बजे थे। उसने सुना था मुर्गा सुबह होने पर बांग देता है। इस मुर्गे ने ऐसा नहीं किया। गैसबत्ती किराए पर देने वाला बेईमान था। उसे मातम में मुफ़्त देने के लिए कहा गया था, लेकिन वह किराया लेता था। मुर्गा उसका था। मुर्गा भी बेईमान हो गया था। लड़के ने मुर्गे को एक गाली दी। उसने तय किया कि अब मुर्गे की बांग से नहीं उठेगा। मिल के हूटर, कोतवाली के घंटे, अजान या चिड़ियों की आवाज़ से उठेगा। ये बेईमान नहीं थे।

    उस सुबह सबसे पहले चिड़िया बोलीं। वह उठ गया। खिड़की का पर्दा हटाकर उसने देखा। थोड़ी रोशनी हो गई थी। वह छत पर गया। उसने आँगन की ओर देखा। लड़की आँगन में टहल रही थी। सुबह की ताज़ी हवा फेफड़ों में भर रही थी। हल्का व्यायाम कर रही थी। तीसरे चक्कर में उसने छत की तरफ़ देखा। लड़के को देखकर वह रुकी। रस्सी की तरफ़ आई। उसने रस्सी पर सूखते कपड़ों को ठीक किया। कपड़ों को ठीक करने तक वह लड़के को देखती रही। लड़का भी उसको अब अच्छी तरह से देख पा रहा था। पता नहीं था कि लड़की लड़के को देख रही है या उसे ख़ुद को देखने दे रही है। लड़की आँगन में चक्कर लगाने लगी। कभी हाथ ऊपर उठाती, कभी कंधें से घुमाती। अंदर देखने वालों को वह सुबह का व्यायाम करने का भ्रम दे रही थी।

    आँगन के एक ओर से दूसरी ओर घूमते हुए जाने में उसका एक चक्कर हो रहा था। एक चक्कर में वह उतनी ही देर दिखती जितनी देर खुले हिस्से से गुज़रती। बाकी समय दीवार या कोठरियों की आड़ में चली जाती। लड़के ने गिनती गिनकर देखा कि उसका एक चक्कर तीन मिनट का है। हर तीन मिनट बाद लड़की खुली जगह से गुजर रही थी। हर तीन मिनट बाद लड़का उसे देख रहा था। खुली जगह से गुज़रते हुए छत की तरफ़ देख लेती। हर तीन मिनट बाद लड़की लड़के को देख रही थी।

    लड़के ने छह बार लड़की को देखा। पहली बार में उसने देखा कि लड़की ने रात के सोने वाले कपड़े बदले हुए थे। वह सफ़ेद रंग के गाउन जैसा कुछ पहने थी। दूसरी बार में उसने देखा कि गाउन पहनने के कारण कल की तरह उसकी कमर के नीचे का भारी हिस्सा नहीं दिख रहा था। तीसरी बार उसने देखा कि कल की तरह उसके बाल खुले नहीं थे। उसने बालों की दो चोटियाँ बना ली थीं। दोनों चोटियाँ उसके कंधों से आगे की तरफ़ पड़ी थीं। चौथी बार में उसने देखा कि कल की तरह वह अलस कर नहीं चल रही थी। पाँचवीं बार में उसने देखा कि तेज़ चलते हुए वह राजसी तरीके से एक ओर थोड़ा झुक जाती है। गर्दन हंसिनी की तरह सीधी रखती है। छठी बार में लड़की खुले हिस्से में रुक गई। वह फिर रस्सी के पास आई। उसने रस्सी से कपड़े उतारे। कपड़े लेकर अंदर चली गई। लड़का मुंडेर से हटकर पौधों को पानी देने लगा।

    सोलहवें पौधों में पानी देते समय उसे आवाजें सुनाई दीं। उसने घूमकर देखा। लड़की गीले कपड़े सुखाने लाई थी। यह आवाज़ बाल्टी रखने और कपड़ों को बहुत तेज़ी से फ़टकारने की थी। लड़के ने पौधों को पानी देना छोड़ दिया। वह फिर मुंडेर पर कोहनी टिकाकर खड़ा हो गया।

    अब दोनों फिर एक दूसरे को देख रहे थे। रस्सी की तरफ़ मुँह करके लड़की धीरे-धीरे कपड़ा फटकारती फिर रस्सी पर फैलाती। लड़के ने कपड़ों को देखा। कपड़ों में उसने लड़की के कल के पीले फूलों वाले कपड़े पहचान लिए। लड़की के पीछे आँगन के नल पर एक औरत आई। उसने हाथ धोए फिर अंदर चली गई। लड़की कपड़े फैला चुकी थी। वह बाल्टी लेकर अंदर जाने लगी। आँगन में एक आदमी आया। उसके साथ वही औरत थी। रसोई की तरफ़ इशारा करके उन्होंने लड़की से कुछ कहा। दोनों अंदर चले गए। लड़की बाल्टी रखकर रसोई में चली गई। कुछ देर बाद वह लौटी। उसने बाल्टी उठा ली। एक बार सतर्कता से चारों ओर देखा फिर लड़के की तरफ़ घूमी। यूं ही एक हाथ उठाया और हल्के से लहराकर चली गई। उसने बता दिया था कि अब नहीं आएगी। लड़का उदास हो गया। इतना उदास कि उसने बचे हुए पौधों को प्यासा छोड़ दिया। वह नीचे चला गया।

    माँ की गालियाँ सुनने के बाद भी वह दोपहर को फिर छत पर आया। लड़की उसी तरह सिर झुकाए आँगन से रोटियाँ लेकर जाती रही। उसे नहीं पता था कि लड़का दोपहर को भी छत पर आता है। लड़का दो बार खांसा, एक बार मुंडेर से फ़र्श पर धम्म से कूदा। लड़की ने नहीं सुना। लड़के को गुस्सा गया। गुस्से में वह शाम को छत पर नहीं आया। उस शाम वह नदी किनारे बालू पर पेट के बल लेटा हुआ बालू पर कपड़े सुखाती, रोटियाँ ले जाती, पांव धोती, बंदर से डरती हुई लड़की के चित्र बनाता रहा।

    अगली सुबह लड़का मुर्गे की आवाज़ पर नहीं जागा। चिड़ियों की आवाज़ पर भी नहीं जागा। कोतवाली के घंटे बजने पर जागा। जागते ही वह छत पर आया। लड़की ने वही सब उसी तरह किया। उसी तरह वह आदमी और वही औरत आई। लड़की रसोई में गई। जाते समय उसने हवा में हाथ हिलाया। लड़के की हिम्मत बढ़ चुकी थी। उसने हाथ उठाकर लड़की से रुकने को कहा। लड़की रुक गई। रस्सी के पास आकर खड़ी हो गई, फिर नल पर मुँह, हाथ, पाँव धोती रही, फिर डरी हुई-सी कभी कमरे, कभी रसोई की तरफ़ देखती खड़ी रही। यूँ ही बेमतलब खड़ा होना उसे डरा रहा था। कुछ देर बाद उसने लड़के को देखे बगैर हाथ हिलाया और चली गई। उसे डर था कि उसे देखा तो लड़का फिर रोकेगा। वह फिर रुक जाएगी। लड़का उसके बारे में जानना चाहता था। उससे कहना चाहता था कि वह हमेशा आँगन में रहे। उसे कोई गुप्त संकेत बताना चाहता था जिसे सुनकर वह जब बुलाए लड़की आँगन में जाए। उसने कुछ गुप्त संकेत सोच भी लिए थे। उसने सोचा था कि इस मौसम में वह पपीहे की आवाज़ निकालेगा या फिर सूर्य का रथ खींचने वाले सुनहरी अयाल के घोड़ों की टापों की आवाज़ या फिर उस बुलबुल की आवाज़ जिसके गले का रंग सुर्ख लाल हो चुका हो। उसने बंद कमरे में इन आवाजों का अभ्यास भी किया था। इन आवाजों को सुनकर माँ कमरे के आस-पास हैरानी से बुलबुल और घोड़ों को ढूँढती रही थी। लड़के ने जब माँ को इस तरह उन्हें ढूंढ़ते देखा, तो उसे लगा कि लड़की भी जब आवाज़ सुनेगी, तो बुलबुल या घोड़े की आवाज़ ही समझेगी। ये आवाज़ें उसे बुलाने के लिए वह निकाल रहा है, उसे पता ही नहीं चलेगा। लड़के ने कुछ और तरकीबें भी सोचीं।

    मसलन, वह किसी का पालतू कबूतर उधर माँग ले जो उसका पत्र ले जा सके या उसकी अनाज रखने की कोठरी की दीवार पर उंगलियों की परछाइयों से जानवरों की शक्लें बनाकर उसे आने का इशारा करे या उसके आँगन तक कागज़ का जहाज़ उड़ा सके।

    लड़का दोपहर को फिर उसी तरह छत पर आया। लड़की ने उसी तरह सिर झुकाए किसी को कमरे में खाना खिलाया। शाम को लड़का फिर आया। आँगन खाली था।

    दस दिन हो गए। ग्याहरवें दिन सुबह लड़के ने शाखाओं पर कुछ नए पत्ते देखे। उसने गिने। अस्सी थे। ये पत्ते नवजात शिशु की तरह चमकदार थे। मुलायम थे। पवित्र थे। उम्मीदों से भरे थे। हवा में झूलते तो उन पर ठहरी चमक बूंदों की तरह नीचे गिरती। वे बड़े और चौड़े थे। उनकी नसें उठी हुईं और रस से भरी थीं। इन अस्सी पत्तों ने ही लड़की की रसोई के एक हिस्से को ढक लिया था। अभी उन्हें असंख्य होना था। इतना कि हवा भी उनके पार नहीं गुज़र सकती थी। किसी की नज़र का गुज़रना और भी कठिन था।

    लड़के ने चारों ओर नज़र घुमाकर दूसरे पेड़ों को देखा। वे सब नए पत्तों से भर चुके थे। उनके हरे रंग अलग-अलग थे। उनकी आकृतियाँ अलग थीं। चमक अलग थी। पतझर से सूखी ठूँठ में कंपकंपाती जर्जर दिखती देहों वाले वे पेड़ अब आसमान की ओर तने हुए धरती को ढक रहे थे। यही एक पेड़ था जिसकी शाखाएँ अभी नंगी थीं। यह सबसे अलग भी था। इस पर कत्थई रंग के बड़े फूल आते थे। बाद में उनसे कपास के रेशे उड़कर चारों ओर फैलते रहते थे। इसी पेड़ पर बैठकर कोयली कूकती थी। इसी पेड़ पर जब चाँद रुकता, नीचे चाँदनी का नगर बसा दिखाई देता था। यह सब शुरू होने वाला था। दो या तीन दिन में इन शाखाओं को पत्तों से भर जाना था। लड़के ने छत से आँगन वाले घर का रास्ता पहचानने की कोशिश की। आँगन के चारों ओर नीची छतों वाले छोटे-छोटे घर बने थे। उन घरों के बीच वह घर कहाँ है, समझ में नहीं आता था।

    उसकी गली, दरवाज़ा कहाँ है, दिखाई नहीं देता था। शाखाओं के पत्तों से भर जाने के बाद आँगन दिखना बंद हो जाएगा। लड़की भी नहीं दिखेगी। यह सोचकर लड़का घबरा गया। मुंडेर से कोहनियाँ टिकाकर उसने एक बार फिर पेड़ देखा। लकड़ी की टाल को देखा जिसके ऊपर उसकी शाखाएँ थीं। बंधी हुई गाय वाले हिस्से को देखा जहाँ उसका तना गया था। कुछ देर तक इसी तरह सब ओर घूरने के बाद वह नीचे उतर आया।

    सुबह लड़की को देखने के बाद लड़का घर से निकलने लगा। माँ ने बिना कुछ खाए बाहर जाने के लिए उसे टोका :

    ‘खाली पेट में आग लगेगी।’

    लड़का झल्ला गया :

    ‘आग लगने के लिए ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है। पेट के अंदर ऑक्सीजन नहीं होती।’

    माँ हैरानी से उसे देखती रही। पेट की आग के बारे में कुछ और बोलती, इसके पहले लड़का बाहर निकल गया।

    लकड़ी की टाल एक छोटे से खुले मैदान में थी। पहले यहाँ हवेलियों की जरूरत की सब्जियाँ वगैरह बोई जाती होंगी या जानवर बंधते होंगे या उन हवेलियों में काम करने वाले झोंपड़ों में रहते होंगे। अब वह मैदान छोटी कोठरियों से भर गया था। इन कोठरियों में लोग रहते थे। इन कोठरियों की छत पर पेड़ के सूखे पत्ते गिरते रहते थे। कभी कोई पुराना साइकिल का टायर, टूटा पिंजरा, फटा जूता भी पड़ा रहता था। लड़के ने छत से इन्हें देखा था। कोठरियों की छतें मिली हुई थीं। ये गिलहरियों और बंदरों के दौड़ने, सोने और खेलने के काम आती थीं। यही छत लड़की के आँगन की रसोई और अनाज के कमरे तक चली गई थी।

    गलियों में रास्ता पूछते हुए लड़का टाल तक गया। कई तरह की लड़कियों के कई तरह के ढेर लगे थे। कुछ ढेर बहुत ऊँचे थे। कुछ छोटे थे। कुछ सूखी टहनियों के थे। लकड़ियाँ तौलने का तराज़ू लगा था। उसके पलड़े मोटी लकड़ियों से बने थे। दुकान के सामने के तख़्त पर तीन आदमी बैठे थे। वे दुकानदार का इंतिज़ार कर रहे थे। लड़का उनके पास खड़ा हो गया। उनकी बातों से लड़के को पता चला कि एक चिता की लकड़ियाँ बेचने वाला मरघट का दुकानदार था, दूसरा हवन की लकड़ियाँ बेचता था, तीसरा गुल्ली-डंडे बनाने के लिए लकड़ियाँ लेने आया था। वे लकड़ियों के ढेर की ओर इशारा करके ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे थे। एक कोठरी से खाँसता हुआ दुकानदार बाहर आया। वह दुबला-पतला था। उसकी उम्र साठ के आस-पास थी। छोटी-सी सफ़ेद दाढ़ी थी। रंग साफ़ था। कंधे पर लंबा तौलिया पड़ा था। उसके पीछे लकड़ियाँ तौलने वाला छोटा लड़का आया। वे तीनों उसके पुराने ग्राहक थे। छोटा लड़का भी उनको पहचानता था। बिना कुछ पूछे वह ढेर से लकड़ियाँ उठाकर तराज़ू के पलड़े पर रखने लगा।

    लड़का उनसे थोड़ी दूर खड़ा था। वह सोच रहा था कि ये तीनों चले जाएं तब वह अकेले में दुकानदार से बात करेगा।

    दुकानदार ने एक बार उसे उड़ती निगाह से देखा। वह समझ नहीं पाया कि लड़का उसका ग्राहक है या अंदर घरों में किसी से मिलने आया है। उन तीनों से बातें करते हुए वह बीच-बीच में तराज़ू की लकड़ियों को भी देख रहा था। लड़के तक लकड़ियों की गंध रही थी, जैसे वे सांस छोड़ रही हों, जैसे कटने जाते बकरमंडी के बकरे छोड़ते थे। उनके ऊपर की नुची भूरी छाल चारों ओर पड़ी थी, जैसे उनकी खाल चाकू से खुरच दी गई हो।

    लड़के ने सिर उठाकर देखा। पेड़ की शाखाएँ दिख रही थीं। लकड़ियाँ तौलने के बाद, बाहर खड़े रिक्शों पर लकड़ियाँ लादकर वे तीनों चले गए। दुकानदार ने एक बार लड़के को देखा फिर तख़्त पर बैठकर हिसाब लिखने लगा।

    अब लड़का आगे आया। दुकानदार के काग़ज़ पर उसकी परछाईं पड़ी। उसने सिर उठाया।

    ‘क्या उस पेड़ की लकड़ियाँ मिलेंगी?’ लड़के ने उंगली उठाकर पेड़ की तरफ़ इशारा किया। उसने डाल को लकड़ी कहा था। उसे डर था कि ‘डाल’ बोला तो दुकानदार कह देगा कि वह लकड़ियाँ बेचता है, डाल नहीं। दुकानदार ने सिर उठाकर पेड़ को देखा। वह जब पैदा हुआ था। तब से उस पेड़ को देख रहा था।

    ‘वे किसी काम नहीं आतीं’ उसने लड़के को देखा, ‘और बहुत तरह की लकड़ियाँ हैं, वे ले लो।’

    ‘नहीं... यही चाहिए।’

    ‘क्यों?’

    ‘वैद्य जी ने इसी पेड़ के लिए कहा है। पत्ते आने से पहले इसकी पतली डालियों को घिसकर लेप बनाना है। अभी पत्ते नहीं आए हैं। अभी इनकी छाल बिलकुल सूखी है। यही सबसे ज़्यादा फ़ायदा करती हैं। पेड़ के उस तरफ़ पत्ते आने लगे हैं। मैंने गिने हैं। अस्सी हैं।’

    ‘तुमने पत्ते गिने?’ दुकानदार ने हैरत से लड़के को देखा। उसने सिर हिला दिया।

    ‘मैंने तारे गिने थे।’

    ‘कितने थे?’

    ‘पता नहीं।’

    ‘क्या वे एक दूसरे पर लदे थे?’

    ‘क्या तारे ऐसा करते हैं?’

    ‘पत्ते तो करते हैं।’

    ‘नहीं... लदे नहीं थे।’

    दुकानदार ने सिर हिलाया। वह चुप हो गया। कुछ देर दोनों चुप रहे।

    ‘क्या आप पेड़ के इधर के हिस्से की डालियाँ कटवा कर दे सकते हैं?’ लड़का इस बार लकड़ियों की जगह डालियाँ बोला।

    ‘नहीं...वहाँ पहुँचने का कोई रास्ता नहीं है। वैसे भी मैं इसे नहीं छुऊँगा। यह पेड़ पीछे वकील के घर से निकला है। जड़ें वहाँ हैं। उसका पेड़ है। वहीं से तने पर चढ़ा भी जा सकता है। तुम्हें अगर इसकी डालियाँ चाहिए तो उसके पास जाओ। वह चाहेगा तो तुम्हें तने पर चढ़कर यहाँ तक आने देगा। अगर दो चार टहनियाँ चाहिए तो अक्सर यहाँ गिर जाती हैं। कभी पतंग की डोर से, कभी बंदरों के कूदने से।’

    ‘नहीं... मुझे बहुत चाहिए। जितनी इधर हैं वे सब। साल भर की दवा बनानी है। पतझर साल में एक ही बार आता है। सूखी टहनियाँ तभी मिलती हैं। वैद्य जी के पास और भी मरीज आते हैं। उनके भी काम आएंगी।’

    ‘किसे चाहिए?’ दुकानदार ने जेब से पीतल की चुनौटी निकाली। तंबाकू और चूना हथेली पर रखकर घिसने लगा।

    ‘क्या?’

    ‘दवा...तुम्हें बीमारी है।’

    ‘नहीं...।’ लड़का हड़बड़ा गया, ‘भाई को।’

    ‘क्या?’

    ‘वैद्य जी जानते हैं।’

    ‘तुम नहीं जानते?’

    ‘उन्होंने बताया नहीं।’

    दुकानदार कुछ क्षण लड़के को देखता रहा फिर पुतलियों को आँखों के कोनों पर टिका कर पूछा :

    ‘कहाँ लगेगी?’

    ‘क्या?’

    ‘दवा।’

    लड़के ने दुकानदार को देखा। उसकी आँखें थोड़ी सिकुड़ गई थीं। थोड़ी और सिकुड़ती तो बंद हो जातीं। होंठ हल्के-से फैल गए थे। थोड़े और फैलते तो हँसी बन जाती। उसने उन फैले होंठों के बीच में तंबाकू दबाया :

    ‘देखना...अगर तुम्हारे भाई को फायदा हो तो मुझे भी बताना। मुझे भी तकलीफ़ रहती है। अक्सर बाद में सूजन जाती है।’

    दुकानदार की बातों से लड़का अचकचा गया। ‘वकील के घर का रास्ता किधर से है’, उसने पूछा।

    ‘यहाँ से बाहर निकलकर दाएँ घूमना। काले बिच्छू का तेल बेचने वाले बोर्ड की दुकान पर रुक जाना। वहाँ से सटी हुई गली में चले जाना। थोड़ी दूर जाने पर एक टूटा फव्वारा दिखेगा। उसके पीछे छोटा मंदिर है। सामने उसका घर है। फव्वारे से तुम्हें पेड़ का मोटा तना दिखेगा। उस पर हमेशा गीलापन रहता है...जैसे मस्त हाथी के माथे से मद निकलता है...उसी तरह। जो पेड़ सैकड़ों साल पुराने हो जाते हैं उनके तने से हमेशा आँसू बहते हैं। जैसे अंदर की आत्मा मुक्ति चाहती है। तुम्हें फव्वारे से उसके आँसू दिखेंगे। शायद वैद्य ने इसीलिए इस पेड़ की डालें माँगी हैं। उसने इसका तना देखा होगा। ये आँसू अमृत की बूंदों में बदल जाते हैं। पुरानी किताबों में लिखा है। पुराने लकड़हारे इसे जानते हैं।’ दुकानदार चुप हो गया। लड़के ने सिर हिलाया और टाल से बाहर गया।

    टाल से बिच्छू के तेल की दुकान तक एक पतली गली जाती थी। लड़का उस गली में घुस गया। वह बहुत सँकरी थी। उसमें धूप नहीं आती थी। गली में मकानों के छज्जे मिले हुए थे। उन पर रंगीन कपड़े लटक रहे थे। कुछ कपड़े ज़्यादा लंबे थे। उसी समय सुखाए गए थे। उनकी बूंदें नीचे गिर रही थीं। दुकानें बंद थीं। गली में नीचे दुकान, ऊपर मकान थे। दुकानों के पटरों के नीचे कुत्ते नाली की ठंडक में दुबके हुए थे। लड़के ने गली पार की। गली पार करते हुए उसने भड़भूंजे, रंगरेज, कठपुतली, नट, चांदी का वरक और चमड़े का मशक बनाने वालों की दुकानें और घर पार किए। लड़का जब इन सबको पार कर रहा था उसके मन में ख्याल आया कि टाल वाले का झूठ यहाँ काम नहीं करेगा। पेड़ का तना वकील के घर में था। दवा के लिए डालों की जरूरत बताने पर, वह अपनी तरफ़ की डालें कटवा सकता था। बिच्छू के तेल की दुकान पर पहुंचने तक लड़के ने दूसरा झूठ सोच लिया।

    दुकान से सटी हुई गली से लड़का अंदर चला गया। टूटे फव्वारे पर पहुँचकर लड़के को पेड़ का तना दिख गया। पेड़ के तने से आँसू गिर रहे थे। पीले रंग की नीची चहारदीवारी वाला घर था वह। बाहर वकील का नाम लिखा था। लोहे का दरवाज़ा बंद था। लड़के ने छत से इस घर में गाय बंधी देखी थी। भूसे के ढेर देखे थे। यह दीवार, यह दरवाज़ा नहीं देखा था। दीवार के पीछे उसे गाय के रंभाने की आवाज़ सुनाई दी। तभी दरवाज़ा खोलकर एक आदमी बाहर आया। वह हरे रंग का चौकोर खानों वाला अंगोछा लपेटे था। लड़के ने अंगोछे से उसे पहचान लिया। इसे लपेटकर गाय का दूध निकालते हुए उसने कई बार छत से उसे देखा था। वह दरवाज़े पर खड़ा था। उसके हाथ में ताजे निकाले दूध की बाल्टी थी। लड़का उसके पास गया :

    ‘वकील साहब से मिलना है।’

    उसने लड़के को ऊपर से नीचे तक देखा फिर सिर हिलाकर अंदर जाने का इशारा किया। लड़का दरवाज़े से अंदर चला गया। अंदर घुसने पर एक रास्ता कुछ दूर तक बिलकुल सीधा जाता था। उसके दोनों ओर बैंगनी फूलों वाले पौधे लगे थे। एक बाएँ हाथ पर घूम गया था। वहाँ वह एक जालीदार कमरे से होता हुआ आगे चला गया था। एक खुली जगह को तारों वाली जाली से घेरकर बैठने की जगह बनाई गई थी। उस जाली पर भी वकील के नाम की पट्टी लटक रही थी। अंदर प्लास्टिक की कुर्सियाँ पड़ी थीं। एक छोटी मेज के पीछे ऊँट के चमड़े वाली ऊँची कुर्सी थी। वह वकील की थी। प्लास्टिक की कुर्सियों पर दो आदमी बैठे थे। वे वकील का इंतजार कर रहे थे। लड़का भी एक कुर्सी पर बैठ गया। वह भी इंतजार करने लगा।

    लड़के ने उस रास्ते को आगे जाते हुए देखा। वही आगे जाकर दीवार के पीछे घूम गया था। पेड़ का तना वहीं था। गाय वहीं थी। आदमी वहीं दूध निकालता था। लड़के का मन हुआ कि उस जगह पर जाकर अपनी छत देखे, जैसे लड़की आँगन से देखती है। लड़के का मन हुआ कि उस जगह पर जाकर पेड़ के गीले तने को छुए। उसके अंदर रोती हुई आत्मा से बात करे। बंदर की तरह उस पर चढ़कर उन शाखाओं तक चला जाए जो लड़की के आँगन तक गई थीं। वहाँ से देख लेगा कि लड़की अंदर किसे रोटी खिलाती है। लड़की को भी बहुत पास से देख लेगा। बंदर की तरह डाल से चिपककर उसे कपड़े सुखाते, रोटियाँ ले जाते, नल पर पंजे धोते देख लेगा। उसके अंदर यह इच्छा हूक की तरह उठी। इतनी तेज़ कि वह उठकर खड़ा हो गया। दोनों आदमियों ने उसे देखा। वे समझे वकील रहा है। वे भी खड़े हो गए। लड़के ने उन्हें खड़े होते देखा तो चुपचाप बैठ गया। उसे घूरते हुए वे भी बैठकर बातें करने लगे।

    लड़का उनकी बातें सुनने लगा। वे रामलीला मैदान को ख़रीदना चाहते थे। वकील ने उनको बताया था कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि उस ज़मीन के मालिक खुद दशरथ पुत्र भरत हैं। सैकड़ों साल पुराने दस्तावेज़ में इसके मालिक ने ज़मीन उनके नाम कर दी थी। अब सिर्फ़ भरत ही इसे बेच सकते हैं। उनके दस्तख़त के बगैर ज़मीन नहीं बेची जा सकती। वकील ने उनको समझाया था कि एक ही तरीका है कि तुम सिद्ध कर दो कि भरत की मृत्यु हो चुकी है और तुम उनके वंशज हो। वकील ने यह भी कहा था कि वे लोग पहले नहीं हैं जो इस ज़मीन को लेना चाहते हैं। बहुत लोग पहले भी कोशिश कर चुके हैं। अंग्रेज़ भी कर चुके हैं। उसी समय यह पता चला था कि ज़मीन के मालिक भरत जी हैं। इसीलिए पिछले एक सौ तीस सालों से ‘भरत मिलाप’ इसी मैदान पर होता है। भरत मिलाप हर साल होता है, इसलिए भरत अब जीवित नहीं हैं, यह सिद्ध नहीं किया जा सकता। वे अब सूर्यवंशी भरत के झूठे दस्तखत की कोई साजिश लेकर आए थे।

    दरवाज़े पर खांसने की आवाज़ करता हुआ वकील घुसा। खांसने की आवाज़ करते हुए घुसना उसने मुगल बादशाहों के आने की घोषणा करने से सीखा था। वे दोनों खड़े हो गए। लड़का भी खड़ा हो गया। वकील सीधे चमड़े की कुर्सी पर बैठ गया। वे दोनों भी बैठ गए। लड़का भी बैठ गया। लड़के ने वकील को देखा। वह मोटा था। उसका पेट ज़्यादा बाहर निकल आया था। वकील ने लड़के को देखा। वह समझा लड़का उनके साथ है। वह उनकी तरफ़ झुक गया। उन्होंने इशारे से उसे रोक दिया। लड़का उनकी बातें सुन सकता था। बाहर जाकर उनका भेद खोल सकता था।

    ‘पहले इनका काम कर दें’ उनमें से एक बोला। वकील फिर पीछे मुड़कर कुर्सी की पीठ से चिपक गए। वह चुपचाप लड़के को देख रहा था। उसके चेहरे की खाल कसी हुई थी। उसे लड़के का आना या खुद लड़का अच्छा नहीं लग रहा था। लड़का लड़खड़ा गया :

    ‘मैं पीछे रहता हूँ। मेरे छत से आपकी गाय दिखती है।’ लड़का चुप हो गया। पीछे रहने या गाय की बात सुनकर वकील का चेहरा मुलायम हो गया। वह मुस्कुराया। लड़के की हिम्मत लौट आई, ‘आपके घर में कत्थई फूलों वाला पेड़ है, वही जिसके तने से आँसू निकलते हैं। वह पेड़ ऊपर बहुत दूर तक फैला है। यहाँ से नहीं दिखेगा। मेरी छत से दिखता है। पतझर के कारण अभी उसमें पत्ते नहीं हैं...पर अब आने शुरू होने वाले हैं। फिर उसमें फूल आएँगे, बहुत सारे बड़े फूल...उनसे कपास के रेशे निकलते हैं। मेरी माँ को उनसे तकलीफ़ होती है। जब हवा मेरे घर की तरफ़ चलती है तो उन फूलों की गंध और कपास के रेशे मेरे घर तक जाते हैं...खिड़कियों से अंदर रसोई तक। माँ की सांस फूलने लगती है। डॉक्टर ने कहा है कि उसे इन फूलों की गंध से, कपास के रेशों से बचाना जरूरी है।’ लड़का एक सांस लेकर चुप हो गया। वकील मुस्कुराता हुआ सुन रहा था। उसे लंबे बयान सुनने की आदत थी। वे दोनों भी सुन रहे थे।

    ‘पत्ते आना शुरू हो चुके हैं। फूल भी आएँगे हवा भी चलने लगी है। इस मौसम से हवा भी पेड़ से होती हुई मेरे घर की तरफ़ आती है?’

    ‘तुम्हे कैसे पता?’ वकील अब बोला। उसकी आवाज़ खुरदुरी थी। जैसे किसी पत्थर पर रस्सी घिसी जा रही हो।

    ‘क्या?’

    ‘यही...कि हवा इधर से तुम्हारे घर की ओर चलेगी।’

    ‘इस मौसम में यही होता है। उसमें खुले बालों की, साँवले ख़रगोश की, रोटियों की महक होती है।’ लड़के को अचानक लड़की याद गई।

    ‘इससे हवा के चलने की दिशा कैसे पता लगती है?’ लड़का लड़खड़ा गया।

    ‘उधर घरों में यह सब होता है।’

    ‘घरों से हवा कभी मेरे घर की तरफ़ भी चलती होगी?’

    ‘जी।’

    ‘लेकिन मुझे तो कभी रोटियों की, खुले बालों की या साँवले खरगोश की गंध नहीं आई?’

    लड़के ने सिर झुका लिया। उसके बयान में गलती पकड़कर वकील ख़ुश हो गया।

    ‘खैर...तो?’

    ‘अगर आप पेड़ की केवल उन डालों को कटवा दें जो मेरी छत से दिखती हैं तो फूलों की गंध और कपास के रेशे नहीं आएँगे’

    ‘पर पेड़ तो मेरा नहीं है।’

    ‘आपके घर में है।’

    ‘घर भी मेरा नहीं है।’

    लड़के ने असमंजस में उसे देखा।

    ‘यह सारी ज़मीन वक्फ़ की है। सारे घर भी उसी के हैं। इनका मालिक मुतवल्ली है। इन घरों के बारे में कोई भी फैसला वही ले सकता है।’

    ‘यह क्या होता है?’

    ‘क्या।’

    ‘जो अभी आपने बोला।’

    ‘तुम इतना ही समझ लो कि वक्फ मतलब ट्रस्ट और मुतवल्ली मतलब बड़ा ट्रस्टी। मुतवल्ली की मर्ज़ी के बगैर कुछ नहीं हो सकता। तुमने बाहर दीवार पर पीला रंग देखा होगा? उसी ने करवाया है। गाय भी उसी ने बंधवाई है। दरवाज़े पर दूध की बाल्टी लिए कोई आदमी मिला था? उसी का है। दूध भी उसी का है। उसके घर जा रहा था। मैं तो बाजार से खरीदता हूँ। यह पेड़ भी उसी का है। इसकी डालें कटवाने के लिए तुम्हें उससे बात करनी पड़ेगी।’

    ‘वह कहाँ मिलेंगे?’

    ‘दूर नहीं है। मुसाफ़िरख़ाने के अंदर उसका दफ़्तर है। वहाँ सुबह बैठता है। अभी चले जाओ। मिल जाएगा।’

    ‘बाद में?’

    ‘तुमने रास्ते में काले बिच्छू के तेल की दुकान देखी थी न?’

    ‘हाँ।’

    ‘उसी की है। बाद में वह काले बिच्छू खरीदता है...उनका तेल निकलवाता है। शीशियों में बंद करवाता है... उसका तेल बहुत मुफीद है, बहुत बिकता है। तुमने कोशिश की कभी?’

    मेज पर कोहनियाँ रखकर वह थोड़ा आगे झुक गया।

    ‘किस बात की?’

    ‘माँ की बीमारी के लिए इस तेल का इस्तेमाल करने की? हो सकता है उन्हें फ़ायदा हो जाए। पेड़ कटवाना पडे़। तुम चाहो तो मैं मुतवल्ली से बात कर लूंगा। वह इस बीमारी के लिए किसी नायाब बिच्छू का तेल बना देगा। उसके पास ऐसे बहुत बिच्छू हैं। उनका तेल वह बेचता नहीं है, अपने लिए रखता है। कई बीमारियों में इस्तेमाल करता है।’

    ‘क्या उससे सूजन ठीक हो जाती है?’

    ‘वह तो बिलकुल हो जाती है।’

    ‘लकड़ी की टाल वाले को जरूरत है... उसे बाद में सूजन जाती है।’

    ‘वह तो आएगी ही। उसने एक तोता पाल रखा है। जैसे तोता हरी मिर्च पकड़ता है, उस तरह वह औरत को पकड़ता है। सूजन तो आएगी ही।’

    लड़के ने कभी तोते को हरी मिर्च पकड़ते नहीं देखा था। वह चुप रहा।

    ‘ख़ैर तुम मुतवल्ली से मिल लो। तेल जरूर ले लेना। एक शीशी टाल वाले के लिए भी।’ लड़का उठ गया।

    ‘तुम एक दरख़्वास्त दे दो। माँ की बीमारी का हवाला दे देना। उसके पास आदमी रहते हैं। जब चाहे उन्हें भेज दे। मैं पेड़ पर चढ़ा दूंगा। दरख़्वास्त लिख लोगे न?’ उसने लड़के को देखा। लड़का चुप रहा।

    ‘न लिख पाओ तो रुको। मेरा मुंशी रहा होगा। वह लिख देगा। उसकी फीस दे देना।’

    ‘मैं लिख लूंगा’ लड़के ने सिर हिलाया। वकील ने भी सिर हिला दिया। वे दोनों आदमी अब तक ऊब चुके थे, उन्होंने भी सिर हिलाया। लड़के ने उनकी ऊब देखी। वह जाली वाले कमरे से बाहर गया। बाहर आकर उसने एक बार फिर तने को देखा। उन पर फैलती शाखाओं को देखा। पत्ते बहुत तेजी से निकल रहे थे। अब वे तीन सौ हो गए थे। शाखाओं पर दौड़ती गिलहरी उनमें फंस रही थी।

    लड़का वापस टूटे फव्वारे के पास गया। उसे भूख लग रही थी। कुछ ही देर में उसके पेट में आग लगने लगी।

    मुसाफ़िरख़ाना दूर था। लड़के ने सोचा घर जाकर कुछ खा ले। वहीं बैठकर दरख़्वास्त भी लिख लेगा।

    घर लौटते समय लड़का फिर उसी गली से गुजरा। लौटते समय वह सोच रहा था कि मुतवल्ली के पास यह झूठ काम नहीं करेगा। बीमारी की बात करने पर हो सकता था कि मुतवल्ली उसे काले बिच्छू का तेल लगाने के लिए दे देता। कुछ दिन असर देखने के लिए कह सकता था। मरीज़ देखने घर भी सकता था। ‘दवा का असर नहीं हुआ तब पेड़ की डालें कटवा देगा’, वह यह कह सकता था। लेकिन तब तक पेड़ पत्तों से लद जाता। तब हो सकता था वह हरे-भरे पेड़ को काटने से इनकार कर देता। अगले पतझर तक सब कुछ टाल देता।

    लड़का घर गया। तेज़ धूप में उसका चेहरा लाल हो रहा था। माँ उसे दरवाज़े पर ही मिल गई, उसकी सुबह की बातों से वह नाराज़ थी। लड़के को दुःख हुआ। लेकिन वह जानता था कि माँ है। चुटकी में मान जाएगी। वह माँ से लिपट गया।

    ‘पेट में आग जल रही है’ उसने अपना गाल माँ के कंधे से रगड़ा।

    ‘कहाँ गया था सुबह से?’ माँ ने कंधा हटाकर गुस्सा दिखाया।

    ‘लकड़ी की टाल’, लड़के ने फिर गाल कंधे से सटा दिया। इस बार माँ ने नहीं हटाया।

    ‘क्यों?’

    ‘दोस्त के घर में हवन है। उसके लिए लकड़ियां लेनी थीं।’ लड़के ने झूठ बोल दिया। लड़के को अचानक ध्यान आया कि वह बहुत सहजता से झूठ बोल रहा है। इतना कि उसे सोचना भी नहीं पड़ रहा। हवन की बात से माँ खुश हो गई। वह अंदर गई। लड़का भी पीछे-पीछे आया। माँ रसोई में आई उसने लड़के के लिए मखाने की खीर और हरे चने बनाए थे। लड़का फर्श पर बैठ गया। माँ ने उसके सामने थाली रख दी। खुद भी सामने बैठ गई। लड़का मखाने और हरे चने खाने लगा। खाकर उसे दरख़्वास्त लिखनी थी। उसने वकील से कह दिया कि लिख लेगा, लेकिन उसने कभी दरख़्वास्त नहीं लिखी थी।

    ‘तुम दरख़्वास्त लिख सकती हो?’ उसने माँ से पूछा। माँ को भगवान के नाम दरख़्वास्त लिखते उसने कई बार देखा था।

    ‘क्यों?’ माँ ने उसे देखा, ‘किसे लिखवानी है?’

    ‘मैंने सुबह छत से देखा, सामने पेड़ के बीच से अपने टेलीफ़ोन के तार आए हैं। पेड़ पर पत्ते आने लगे हैं। कुछ ही दिनों में वे तारों को ढक लेंगे। उन पर ओस रुकेगी तो उसकी नमी तारों में पहुँच जाएगी। उससे फोन ख़राब हो सकता है। पत्तों से नहीं भी हुआ तो जब फूल आएंगे तब होगा। फूल से कपास उड़ेगी। तारों पर चिपक जाएगी...।’ लड़के ने घबराहट में ढेर सारे चने मुँह में भर लिए थे। इतना बोलकर वह धीरे-धीरे उन्हें चबाने लगा।

    ‘क्या फ़ोन बंद हो जाएगा?’ माँ चिंतित हो गई। वह अपनी माँ से फ़ोन पर रोज़ एक बार बात करती थी।

    ‘बंद भी हो, तो भी लगेगा जैसे फोन के ऊपर कोई सिसकियाँ ले रहा है। कुछ सुनाई नहीं देगा।’

    ‘हां सिसकियों में बोला हुआ सुनाई नहीं देता।’

    माँ चिंतित थी। उसकी माँ जब फोन पर सिसकियाँ लेती थी, वह कुछ समझ नहीं पाती थी।

    ‘तुम खा लो मैं दरख़्वास्त लिख देती हूँ...।’

    लड़का ख़ुश हो गया। उसने जल्दी में मखाने की खीर पी ली। चने निगल लिए। उठ गया। माँ उठकर कमरे में गई। लड़के ने उसे कागज़ कलम दिया। बताया कि दरख़्वास्त मुतवल्ली के नाम लिखनी है कि वह इस पेड़ की उन शाखाओं को कटवा दे जो तारों के पास हैं। माँ दरख़्वास्त लिखने बैठ गई। लड़का लड़की को देखने छत पर चला गया। आँगन खाली था। लड़की को उसके आने की कोई उम्मीद नहीं थी।

    लड़के को भी लड़की के दिखने की कोई उम्मीद नहीं थी। फिर भी बिना उम्मीद की एक उम्मीद थी। तभी ऊपर से एक हवाई जहाज़ शोर करता गुजरा। जहाज़ देखने के लिए लड़की दौड़ती हुई आँगन में आई। जहाज़ आँगन से छत की तरफ़ रहा था। जहाज़ को देखते हुए लड़की की निगाह छत पर गई। उसने जहाज़ देखना छोड़ दिया। वह लड़के को देखने लगी। वह नंगे पांव भागी आई थी। धूप तेज थी। आँगन की ईंट पर उसके तलुए जलने लगे। वह खड़ी थी, पर जल्दी-जल्दी पैर बदल रही थी। इस धूप में आँगन में यूं ही खड़ी हुई वह डर रही थी। डर...तलुओं की जलन से वह देर तक नहीं रुकी। हाथ उठाकर उसने इशारा किया और चली गई। लड़का ख़ुश हो गया। उसने पेड़ को देखा। चार सौ तीस पत्ते हो गए थे।

    आँगन का नल थोड़ा ढक गया था। लड़की अगर पाँव धोती तो उसके पंजे नहीं दिखते। शाखाएँ नहीं कटीं तो इसी तरह एक रोज लड़की भी नहीं दिखेगी। लड़का उदास हो गया। उसकी उदासी इतनी बढ़ी कि वह घबरा कर नीचे उतर आया। माँ ने दरख़्वास्त लिख दी थी। बिना कुछ पढे़ उसने कागज जेब में रखा और तेजी से बाहर निकल गया।

    मुसाफ़िरख़ाना शहर के बीच में था। बरसात के दिनों में जब नदी घाट की ऊपरी सीढि़यों को डुबो देती थी और नावें उलटी करके रख दी जाती थीं और पुल से गुजरने वाली रेलगाड़ियों में बैठे लोग नदी में जार्ज पंचम और विक्टोरिया के सिक्के फेंकते थे, उन दिनों मुसाफ़िरख़ाना भरा रहता था। आस-पास से या दूर-दराज़ से भी लोग मेलों में आते थे, मुर्दनी में आते थे। शादियों में आते थे, फसल कटने पर, मन्नत पूरी होने पर आते थे। नदी सूखती गई। मुसाफ़िरख़ाने की दीवारों मे दरारें पड़ गईं। कोनों में मकड़ियों ने जाले बना लिए। छत पर हरे पत्तों वाले पौधे उग आए। मुसाफ़िरख़ाने को रुपए देने वाले घर खुद भूखे हो गए। लोगों ने भी फसलों, बीमारियों, मुर्दनी और मन्नतों में आना छोड़ दिया। आजादी के बाद इसमें दफ़्तर खोल दिए गए। जन्म लेने और मरने की ख़बर का दफ़्तर, टीके लगाने, मरे जानवर उठाने का, गुमशुदाओं को ढूंढ़ने का दफ़्तर खुल गया। बाहर इनकी पट्टियाँ लगी थीं। पहले वह हवा में लटकीं फिर टूटकर नाली में गिर गईं। इसी मुसाफ़िरख़ाने में वक्फ़ का दफ़्तर था।

    लड़का मुसाफ़िरख़ाने की तीन टूटी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊँचे दरवाज़े से अंदर गया। अंदर एक खुली जगह के चारों ओर चौकोर गलियारा था। उसके साथ कमरे बने थे, कमरों के बाहर नाम की पट्टियाँ लटक रही थीं। गलियारे के एक कोने में दो घड़ों में पानी रखा था। एक घड़े के ऊपर हैंडल वाली छोटी-सी लुटिया रखी थी। गलियारे के बाहर की खुली जगह में क्यारियाँ थीं। उनमें पौधे थे।

    पहला बड़ा कमरा ही वक्फ़ का था। लड़का कमरे में गया। बड़ी-सी मेज़ के पीछे दोहरे बदन का एक आदमी बैठा था। वह मुतवल्ली था। उसके सामने की कुर्सी पर एक आदमी था। उसकी कुर्सी के साथ की दो कुर्सियाँ खाली थीं। मुतवल्ली ने लड़के को देखा। कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। लड़का कुर्सी पर बैठ गया। वे दोनों बातें करने लगे। लड़के ने कमरे में नज़र दौड़ाई। मुतवल्ली के पीछे की दीवार के दोनों सिरों पर लंबी खिड़कियाँ बनी थीं। एक से धूप रही थी। कमरे में उसी की रोशनी थी। उसी रोशनी में खिड़कियों की सलाखों का भूरा जंग चमक रहा था। नीचे की धूल भी। दूसरी खिड़की के पीछे सड़क दिख रही थी। सड़क पर दरगाह पर चढ़ाने वाली चादर के चारों कोने पकड़कर लड़के पैसे माँग रहे थे। एक मदारी जमूरे को ज़मीन पर लिटाने की तैयारी कर रहा था। बांसुरी बजाता एक आदमी कंधे पर ढेर-सी बांसुरी, रंगीन गुब्बारे, गुलेल, रंगीन लट्टू, कागज़ के जानवर लटकाए जा रहा था। एक लड़की और लड़का उसकी धुन पर नाचते हुए उसके पीछे जा रहे थे।

    बिच्छू के बारे में लोग ज़्यादा नहीं जानते’, मुतवल्ली के सामने बैठा हुआ आदमी बोल रहा था। मुतवल्ली बहुत ध्यान से सुन रहा था।

    ‘सच तो यह है कि जानवरों के बारे में भी नहीं जानते। इनके अंदर अनमोल ख़ज़ाने छुपे होते हैं। उनके बारे में भी नहीं जानते। उनकी खाल, उनके जहर, उनकी लार, उनकी नीचे की गोलियाँ, नाख़ून, बाल तक में हर बीमारी का इलाज है। जिस दिन इंसान जानवरों के अंदर छुपी इस ताकत को जान लेगा, सब कुछ बदल जाएगा। कोई बूढ़ा होगा, मरेगा। मकड़ी के जाले का तार, बिच्छू का ज़हर।’ वह आदमी फ़र्श तक झुका। झोले के अंदर से कांच की बड़ी शीशियाँ निकालकर मेज़ पर रखीं, ‘मेरे पुरखे जानते थे। तभी सैकड़ों सालों से लोग हमारे पास आते हैं। अब रेगिस्तान के इस बिच्छू को देखिए। दुनिया का सबसे ज़हरीला जानवर है। इसकी दुम देखिए...हमेशा धनुष की तरह ऊपर उठी रहती है। डंक मारने को तैयार। रेगिस्तानी लोमड़ी, कंगारू, चूहा तक इसके ज़हर से नहीं बचते। इसमें तेल बहुत कम होता है, पर जितना होता है अमृत समझिए। और इसे देखिए।’ उसने एक और बड़ी शीशी आगे बढ़ाई, ‘पहाड़ों की चट्टानों में रहने वाला। रूम के लोग अपने चोगे का एक हिस्सा इसके ज़हर से रंगवाते थे। कभी अचानक मरना पड़े तो उसे चाट लेते थे। बहुत से लोग इस तरह मरे हैं। मैंने तो सुना है कि सुकरात को भी इसी का जहर दिया गया था।’

    लड़का भी मेज़ पर झुककर बिच्छू दखने लगा। उसने पहले कभी बिच्छू नहीं देखा था। कांच की बड़ी शीशी में बंद होने के बाद भी वह डरा रहा था। उसकी खाल बटी हुई रस्सी की तरह और चमकीली थी। लड़के ने इतना गहरा काला रंग कभी नहीं देखा था। बादलों में, लड़की के बालों में, शहतूत में। लड़के ने सिर उठाकर मुतवल्ली को देखा। उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं।

    ‘पर मुझे ज़िंदा नहीं चाहिए’, वह बोला।

    ‘वह मैं दूंगा भी नहीं’, उस आदमी ने शीशियाँ वापस झोले में रख लीं।

    ‘मार कर ही दूंगा...तेल आप निकालिएगा।’

    उसने एक बार लड़के को देखा फिर उठ गया।

    ‘बाकी बातें शाम को दुकान पर करूँगा। तब तक मैं मेडिकल कॉलेज जा रहा हूँ। वहाँ भी इनकी ज़रूरत है।’

    ‘पर उन्हें ये मत देना।’

    ‘नहीं...उन्हें तो दुम निकले हुए मामूली बिच्छू दूँगा जो मारे-मारे फिरते हैं। ये आपके लिए रहेंगे।’ उसने पायजामे का नाड़ा खोलकर बांधा फिर झोला कंधे पर लटकाकर चला गया।

    ‘हाँ’, मुतवल्ली अब लड़के की ओर मुड़ा।

    लड़के ने जेब से दरख़्वास्त निकाल कर उसे दी। मुतवल्ली ने मेज पर रखा चश्मा आंखों पर चढ़ाया। दरख़्वास्त पढ़ी। चश्मा उतारकर मेज़ पर रखा। चश्मे के पास कागज़ रखा। लड़के को देखा, फिर हँसा।

    ‘कमाल है! एक पेड़ की डालों से इतनी दुश्मनी...जैसे वह बिच्छू हो! अभी कुछ देर पहले इन्हीं डालों को काटने की एक दरख़्वास्त और आई है।’ उसने दराज खोली और एक कागज निकालकर लड़के के सामने रख दिया।

    उस पतझड़ में लड़के ने पाँच झूठ बोले। उस पतझर में लड़की ने कितने बोले पता नहीं, पर पत्ते आने से पहले पेड़ की शाखाएँ कट गईं।

    स्रोत :
    • संपादक : प्रेम भारद्वाज
    • रचनाकार : प्रियंवद
    • प्रकाशन : पाखी

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