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साधनि ही मरियै भरियै

sadhani hi mariyai bhariyai

घनानंद

अन्य

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घनानंद

साधनि ही मरियै भरियै

घनानंद

और अधिकघनानंद

    साधनि ही मरियै भरियै अपराधनि बाधनि के गुन छावत।

    देखौं कहा सपनो हूँ देखत नैन यौं रैन दिना झर लावत।

    जौ कहूँ जान लखैं घनआनँद तौ तन नेकु औसर पावत।

    कौन बियोग-भरे अँसुवा जु सँजोग में आंगेई देखन धावत॥

    इन मेरे आँसुओं में जाने विरह की कैसी व्यथा भरी हुई है कि यदि प्रिय कहीं दिखाई भी पड़े तो उस संयोग में भी ये प्रिय के दर्शन नहीं होने देते। ये ही आगे-आगे देखने दौड़ पड़ते हैं। आँसुओं की ऐसी झड़ी लग जाती है कि आँखें तक प्रिय के रूप के दर्शन नहीं पातीं। शरीर के अन्य अंगों का तो कहना ही क्या, वे तो कुछ भी अवसर नहीं पाते। उनकी झड़ी संयोग में तो रहती ही है, कुछ बढ़ी हुई रहती है; वियोग में भी रात-दिन इनकी झड़ी लगी रहती है। आँखें सो पाती हैं स्वप्न दिखाई पड़ता है। स्वप्न में जो प्रिय के दर्शनों की संभावना थी वह भी गई। इसलिए प्रिय को प्रत्यक्ष देखना तो दूर उनका स्वप्न भी नहीं दिखाई देता। इन्होंने तो अपराध का रूप धारण कर बाधाओं का ऐसा जाल बिछा रखा है कि केवल उत्कट अभिलाष में परेशान होने के सिवा और कोई चारा नहीं। इसी प्रकार के कष्ट में दिन काट रही हूँ। वियोग में चैन, संयोग में चैन।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 195)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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