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बागन काहे को जाओ पिया

baagan kaahe ko jaa.o piya

रसखान

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रसखान

बागन काहे को जाओ पिया

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    बागन काहे को जाओ पिया, बैठी ही बाग़ लगाय दिखाऊँ।

    एड़ी अनार सी मौरि रही, बहियाँ दोए चंपे की डार नवाऊँ॥

    छातिन मैं रस के निबुआ अरु घूँघट खोलि कै दाख चखाऊँ।

    टाँगन के रस के चसके रति फूलनि की रसखानि लूटाऊँ॥

    कोई नायिका नायक से कह रही है कि हे प्रियतम! तुम बाग़ में क्यों जाते हो? मैं घर बैठे ही तुम्हें बाग़ लगाकर दिखा सकती हूँ। मेरी एड़ियाँ अनार की भाँति फूल रही हैं, मानो ये ही अनार हैं। दोनो बाँहें ही मानो चंपे की डालें हैं। छाती मे उभरे हुए स्तन ही मानो रस भरे नींबू हैं। मैं घूँघट खोलकर तुम्हें द्राक्षा चखा सकती हूँ, अर्थात् मेरे अधरों के चुंबन में द्राक्षा का आनंद भरा हुआ है। रसखान कहते हैं कि छुहारों का रस तुम्हें चखा सकती हूँ और प्रेम की कलियाँ तुम पर लुटा सकती हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रसखान ग्रंथावली सटीक (पृष्ठ 301)
    • रचनाकार : प्रो. देशराजसिंह भाटी
    • प्रकाशन : अशोक प्रकाशन
    • संस्करण : 1966

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