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पहिले घनआनंद सींचि सुजान

pahile ghananand sinchi sujan

घनानंद

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घनानंद

पहिले घनआनंद सींचि सुजान

घनानंद

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    पहिले घनआनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी।

    अब लाय वियोग की लाय बलाय, बढ़ाय बिसास दगानि दगी।

    अँखियाँ दुखियानि कुदानि परी, कहुँ लगैं कौन घरी सु लगी।

    मति दौरि थकी, लहै ठिक ठौर, अमोही के मोह-मिठामठगी॥

    कभी प्रिय ने आनंद की वृष्टि करके और उस वृष्टि के जल से चातुर्यपूर्वक सिक्त करके अत्यंत प्यार से पगी बातें कीं। अब विरह की आग लगाकर और उस आग के द्वारा कष्ट की वृद्धि करके फिर विश्वासघात के कपट से जलाया। उधर दुखिया आँखों को कुटेव ऐसी पड़ी हुई है कि वे कहीं लगती ही नहीं, उन्हें किसी और को देखना सुहाता नहीं। यह कैसी घड़ी लगी है, कि तो प्रिय ही अनुकूल है और अपनी आँखें ही। रही बुद्धि, सो वह बेचारी भी विचार-मार्ग पर दौड़ लगाते थक गई पर उसे कहीं टिकाव का स्थान मिला, मिला। अमोही प्रिय के मोह के मिठास से वह ऐसी ठगी है कि उस मिठास के व्याप्त होने से उसने अपनी सोचने-विचारने की वृत्ति ही त्याग दी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 82)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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