गंग तरंगिनी बीच बरंगनि

gang tarangini beech barangani

देव

देव

गंग तरंगिनी बीच बरंगनि

देव

गंग तरंगिनी बीच बरंगनि ठाढी करै जप रूप उदोती।

देव दिवाकर की किरनै निकसै विकसै मुख पंकज जोती।

नीर भरी निचुरै अलकै छुटिकै छलकैं मनो माँग के मोती।

विज्जुल सी झलकै लपटै कन कज्जल सी अंग उज्जल धोती॥

गंगा की लहरों के बीच वह श्रेष्ठ अंग वाली यौवना खड़ी जाप कर रही है, जिसका रूप अत्यंत दीप्तमान है। उसका मुख सूर्य की किरणों के पड़ते ही कमल की भाँति खिल उठता है। जब वह अपने गीले बालों को निचोड़ती है, तब ऐसा लगता है मानो उसकी माँग से पानी की बूँदें नहीं, मोती छलक रहे हों। उसके अंग काजल के समान श्यामवर्णी हैं और उस श्यामा पर उज्ज्वल धोती अत्यंत शोभायमान प्रतीत हो रही है। उसके शरीर के कण−कण से अर्थात् अंग−अंग से बिजली की सी लपटें झलक रही हैं अर्थात् उसकी देह अत्यंत कांतिमयी है।

स्रोत :
  • पुस्तक : देव और उनका रस विलास (पृष्ठ 166)
  • संपादक : डॉ दीनदयाल
  • रचनाकार : देव
  • प्रकाशन : नवलोक प्रकाशन
  • संस्करण : 2004

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