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धार में धाय धँसी निरधार ह्वै

dhaar mein dhay dhansi nirdhar hwai

देव

अन्य

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देव

धार में धाय धँसी निरधार ह्वै

देव

और अधिकदेव

    धार में धाय धँसी निरधार ह्वै, जाय फँसी उकसीं अबेरी।

    री! अंगराय गिरीं गहरी, गहि, फेरे फिरीं घिरी नहिं घेरी॥

    देव कछू अपनो बस ना, रस, लालच लाल चितै भयीं चेरी।

    बेगि ही बूड़ि गयीं पँखिया, अँखियां मधु की मखियाँ भयीं मेरी॥

    कृष्ण के प्रति मुझमें ऐसा आकर्षण उत्पन्न हो गया है कि मेरा अपने ऊपर कोई वश ही रह गया। जिसका सहारा छूट गया हो और वह धार में गिरकर डूब जाए, वैसी ही मेरी स्थिति हो गई। मैं कृष्ण के प्रेम में निमग्न हो गई और फिर मैं उससे मुक्त हो पाई। जलधार में गिरा हुआ व्यक्ति चारों ओर से घेरकर, पकड़कर बाहर निकालने का प्रयत्न किए जाने पर भी बाहर निकला जा सके, वैसी ही मेरी स्थिति हो गई। मैंने स्वयं को कृष्ण मुक्त होने के सारे प्रयत्न किए किंतु मैं उबर नहीं पाई। मैं कृष्ण-प्रेम में और डूबती गई। मैं कृष्ण की रसीली बातों के लालच में उनकी दासी बन गई। मेरा अपने आप पर कोई वश रहा। शहद में डूबी हुई मक्खियों के पंखों की तरह मेरी आँखें कृष्ण के सौंदर्य में एकदम निमग्न हो गईं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : देव

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