सोइ सोहागिनि पिया रंग राती

soi sohagini piya rang rati

दरिया (बिहार वाले)

दरिया (बिहार वाले)

सोइ सोहागिनि पिया रंग राती

दरिया (बिहार वाले)

सोइ सोहागिनि पिया रंग राती। सोइ सोहागिनि कुल नाहिं जाती॥

सोइ सोहागिनि पिया पहचानै। तन मन वारि भगति निजु ठानै॥

कपरा सेत सुगंध सोहाई। लाल पियर के नगीच जाई॥

भई जुगल इमि पिया के साथा। आनंद मंगल सदा सनाथा॥

सोहागिनि पिया हुकुम जो गावै। निस दिन सेवा खसुम के लावै॥

अभरन दूरि किया कांचु की पोती। सब सखिअन्हि में निर्मलि मोती॥

पिया के चरन सदा इमि लोचै। रहे सनीप अघ पातख मोचै॥

वही आत्मारूपी स्त्री सुहागिन है जो अपने परमात्मारूपी पति के प्रेम के रंग में रँगी हुई है। जो उस परमात्मारूपी पति के साथ मिलकर अपनी कुल और जाति की अलग पहचान को समाप्त करके दृढ़तापूर्वक भक्ति करती है, वह दुनिया के लाल-पीले रंगों अर्थात् भड़कीले दिखावे के निकट भी नहीं जाती, उसे तो सादे या सफ़ेद कपड़ों में ही सादगी की शोभा और सुगंधि प्राप्त होती है। इसी भाव से वह अपने परमात्मारूपी पति के साथ जुड़ी रहती है और सदैव पति के साथ आनंद और ख़ुशियाँ मनाती है। यह आत्मारूपी सुहागिन वही करती है जो उसके परमात्मारूपी पति की आज्ञा होती है। वह रात-दिन उन्हीं की सेवा में लगी रहती है। वह बाहरी शृंगार के गहनों को कच्चे काँच के समान टूट जाने वाले जानकर उन्हें उतार फेंकती है अर्थात् किसी भी प्रकार का बाहरी आडंबर उसे अच्छा नहीं लगता। वह आत्मा सभी सांसारिक जीवों के बीच रहते हुए परमात्मा से मिलकर एक पवित्र मोती के समान बन जाती है। इस प्रकार वह सदा परमात्मारूपी पति के चरणों के लिए ललचाती रहती है और उनके पास रहते हुए अपने सारे पाप-दोष समाप्त कर देती है।

स्रोत :
  • पुस्तक : संत दरिया (बिहार वाले) (पृष्ठ 438)
  • संपादक : काशीनाथ उपाध्याय
  • रचनाकार : संत दरिया (बिहार वाले)
  • प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास, पंजाब
  • संस्करण : 2016

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