बिहंगम बोलु बचन बनबासी

biha.ngam bolu bachan banbaasii

दरिया (बिहार वाले)

दरिया (बिहार वाले)

बिहंगम बोलु बचन बनबासी

दरिया (बिहार वाले)

बिहंगम बोलु बचन बनबासी।

उड़ि-उड़ि आय तरिवर पर बैठो निस दिन रहत उदासी॥

अति चीकन तरिवर सुठि सुंदर ताहां अमी फल आसी।

पिय-पिय प्रेम मगन तन वारो तब वा फलहि गरासी॥

डोरिअहिं डोरियै गगन चढ़ि जेंहो परिमल मलहिं निकासी।

अति सुगंध गगन घन बरिसे सकल भर्म भौ नासी॥

ब्याधा बधिक ताहां नहिं जैहें काटु कर्म की फांसी।

कहें दरिया तू दायापुर बसि ले होए रहु नाम उपासी॥

संसाररूपी वन में निवास करने वाली आत्मारूपी चिड़िया! तू उड़-उड़कर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर (एक जीवन से दूसरे जीवन में) बैठती है, परंतु सभी जगह दु:खी ही तो रहती है! एक अत्यंत चमचमाता हुआ सुंदर वृक्ष है जहाँ पर अमृत का फल है। अपने प्रियतम परमात्मा के प्रेम को पीकर मग्न हो स्वयं को न्योछावर करने पर उस फल को खाया जा सकता है। शब्द की डोर के सहारे धीरे-धीरे एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल पर जाकर आकाश में चढ़ जा। वहाँ की सुगंधि से तेरी सारी मैल निकल जाएगी। उस सुगंधि में आकाश से अमृत-वर्षा करते बादलों से सारे भ्रम नष्ट हो जाएँगे। तेरा वध करने वाला शिकारी काल भी वहाँ नहीं जा सकता। तेरे कर्मों का फंदा कट जाएगा। इसलिए तू नाम का अभ्यास करके इस दयालकी नगरी में निवास कर।

स्रोत :
  • पुस्तक : संत दरिया (बिहार वाले) (पृष्ठ 366)
  • संपादक : काशीनाथ उपाध्याय
  • रचनाकार : संत दरिया (बिहार वाले)
  • प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास, पंजाब
  • संस्करण : 2016

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