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नल

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प्रकाशचंद्र गुप्त

अन्य

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और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    हमारी बस्ती में एक ही नल था जिसका पानी रुक-रुक कर, यूँ कहिए, रो-रोकर निकलता था। सुबह-शाम इस नल के इर्द-गिर्द एक भारी भीड़ मक्खियों की भाँति टूट पड़ती थी, लेकिन नल की धार किसी दुर्लभ चीज़ की तरह मुश्किल से निकलती। दोपहर को पानी एकदम बंद रहता, क्योंकि पानी का सब खिंचाव बेलन-गंज के सेठों की हवेलियों की ओर रहता था और वही चुंगी के मेंबर थे। इस कारण टैक्स भी देना उनके लिए ज़रूरी था। बस्ती के ख़ुशहाल लोग तो नित नए कलशे ख़रीद सकते थे, लेकिन हम ग़रीबों का क्या होता? बस पूछिए!

    एक अजब भीड़भाड़ नल के चारों ओर मँडराया करती। बड़े बडे लँगोटबाज़ पहलवान— नंग-धड़ंग, औरत-बच्चों को ठेलते, अलग हटाते, बूढ़े मैले-कुचैले, बदबूदार कपड़े लपेटते, सँभालते, छोटे-छोटे बच्चे, जिनके माँ-बाप मेहनत-मजूरी में लगे थे, शर्मीली बहू बेटियाँ जिन्हें धक्के खाने की आदत अभी नहीं पड़ी थी—सभी चील-कौवों की तरह नल पर मँडराया करते।

    जमुनी भी इस भीड़ में एक ओर दुबकी खड़ी रहती। वह सहमी हुई, हिरनी-सी आँखों से अपने डेढ़ गज घूँघट से बाहर देखने का प्रयत्न करती, लेकिन क़दम भर भी आगे बढ़ने पर धक्के लगते और वह पीछे हट जाती। दोपहर को लगभग भीड़ छँट जाती और तब नल भी किसी मरियल बुड्ढे की तरह अपने अंतिम साँस लेता। आधा चौथाई घंटा भरते-भरते वह अपना दम तोड़ सेठों के स्वर्ग में विहार करने के लिए चला जाता।

    यह नल लाल क़िले के पास के बड़े बिजली-घर से चलता था। वहाँ दानव के समान भारी-भारी इंजिन जमुना के क्षीण सूखते पाट से पानी खींचते, मशीनें उसे साफ़-निर्मल बनाकर नलों द्वारा शहर भर में पहुँचाती। लंबे-लंबे टेढ़े-मेढ़े रास्ते काटता वह हमारी बस्ती तक पहुँचता। तब कही पानी हमें नसीब होता, वह भी जाड़ों में नहीं। कभी-कभी मन में होता है कि इससे अच्छे तो अपने कुएँ ही थे, जब चाहा, पानी निकाल लिया, मीठा साफ़, अमीर-ग़रीब सभी के लिए एक समान; लेकिन उस दिन बाबू जी कहते थे कि दोष मशीन का नहीं, समाज का है। ख़ैर, होगा किसी का भी।

    लेकिन जमुनी जब इतनी दुपहरी को बिना पानी लिए घर पहुँचती, तो उसका आदमी उसे पीटता। वह कहार था। वकील साहब के यहाँ से बारह-एक बजे चौका-बर्तन कर के लौटता, फिर कुछ उलटा सीधा निगल प्रोफ़ेसर साहब के यहाँ भागता। वहाँ से लौटने में तीन बज जाते थे। घर पर उसे दाना-पानी मिलता, तो झुँझलाहट होती। जमुनी दोपहर भर नल के पास काट कर भी कभी-कभी बिना पानी के ही लौटती थी, खाना बनाना तो दूर रहा।

    पिटना तो जमुनी बरदाश्त कर लेती, लेकिन गाली वह सह सकती थी। रामसुख कहता—'किसके पास जा बैठती है, कलमुँही? एक बूंद पानी भी नहीं ला सकती? तुझे इसीलिए घर लाकर बसाया है?'

    जमुनी को पुराने दिन याद आते। बरात, मेला, भीड़, ढोल-ताशे, गीत, जेवनार और रामसुख का प्यार। और अब गालियों पर बनी थी।

    जमुनी ने एक दिन नल तक पहुँचने का सरतोड़ प्रयत्न किया। चारों ओर से उसे धक्के और गालियाँ मिलने लगीं। 'देखकर नहीं चलती', 'पैर कुचल दिया', 'यह आर्इ चलके मलका विक्टोरिया!' उसने कुछ परवाह की, लेकिन मंज़िल अभी लंबी थी, नल दूर था। अभी गज़, दो गज़... घड़ों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। एक धक्का लगा और—जमुनी का घड़ा फूट गया। वह वहीं बैठकर फफक-फफक कर रोने लगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

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