रानीखेत की रात

ranikhet ki raat

प्रकाशचंद्र गुप्त

प्रकाशचंद्र गुप्त

रानीखेत की रात

प्रकाशचंद्र गुप्त

रानीखेत का सदर बाज़ार शाम होते ही गुलज़ार हो उठता है। दुकानों में गैस की बत्तियाँ जगमग करने लगती हैं और सड़कों पर एक अजब चमक-दमक छा जाती है। दिन भर के अलसाए सिनेमा घर में चहल-पहल हो उठती है और सजधज के साथ एक आमोद-रत भीड बाज़ार में पहुँचती है—रंगे मुँह और रंगीन कपड़े पहने।

बजाजों और रेस्ट्रॉवालों की बिक्री इस समय बढ़ जाती है। बहुत-से लोग खाने-पीने के सामान की तलाश में निकलते हैं। इनमें प्रमुख है रानीखेत की बूढ़ी और अधेड़ ऐग्लो-इंडियन औरतें, जो बारहों महीने यहाँ रहती हैं और अपने भाग्य को कोसती हैं।

बाज़ार में सब से ज़्यादा भीड़ रहती है अँग्रेज़ी सिपाहियों की, जो यहाँ लड़ाई और लू की तपन के बाद अपने दिमाग़ और बदन को तर-ओ-ताज़ा करने आते है। शाम होते ही इन ख़ाकी-पहने 'टामीज़' की भीड़-की-भीड़ दूलीखेत से निकलती है और सदर बाज़ार में चील कौवों की तरह मँडराने लगती है। ‘सोलज़र्स रेस्ट्रॉ’ से नाच के रेकार्डों की मदिर ध्वनि और बीच-बीच में कर्कश अट्टहास राहगीरों का ध्यान निरंतर अपनी ओर खींचते हैं। रात होते-होते 'बीयर की, गंध से रानीखेत के पथ भर जाते हैं।

दूर क्षितिज पर साँझ के रक्ताभ आकाश में नंदा देवी, त्रिशूल, घौलगिरि और बद्रीनाथ के उत्तुग शिखर पर-खोले बगुलों की पॉत से दिखाई पड़ते है। चीड़ के बन में शाम की हवा भर जाती है, और समुद्र में ज्वार आने के समय जैसी खलबली बन में मच जाती है। चीड़ के पेड़ साँय-साँय कर उठते हैं!

सदर बाज़ार और क्षितिज की पर्वत-राशि के बीच आलोक और अंधकार की कुछ कड़ियाँ हैं, जो पूरे दृश्य को एक शृंखला मे बाँध देती हैं।

खड्ड में उतरते बाज़ार का रास्ता (जहाँ पसारे और नाज-आटे की छोटी दुकानों पर ढिबरियों या 'हरीकेन' लालटेने जुगनू-सी टिमटिमाती हैं) दूरस्थ अंधकार के रूप में बसे गाँवो में खो जाता है। इन पातालगामी रास्तों में पसीने और सड़न की बू उठा करती है और पथिक भूल जाता है कि वह रानीखेत के स्वर्ग में विहार कर रहा है। इस प्रदेश में ख़ालिस पहाड़ी जाति बसती है, जिसका रूप कीचड़ में फूले कमल के समान चमका करता है।

यदि रानीखेत पर हम एक विहंगम दृष्टि डालें, तो सदर बाज़ार को आलोक का एक द्वीप-पुंज देखेंगे, जिसके चारों ओर उजाले की इक्का-दुक्का चट्टानों को छोड़ अंधकार का गहरा सागर हिलोर मार रहा है। या हम उसे सभ्यता के अग्रिम सैनिक मोर्चें के रूप में देखेंगे, जिसे चारों ओर से वन खाने को दौड़ रहा हो।

एक पहर रात बीतते-बीतते बाज़ार की बत्तियाँ बुझ जाती हैं और भयंकर सन्नाटा सड़कों पर छा जाता है। तब राहगीर के मन पर आदिम-युग का आतंक छा जाता है और प्रकृति की शक्तियाँ विराट रूप धारण करके उसे भयभीत करती है। वह सोचता है, प्रकृति दानव के विकराल मुख का ग्रास में अब बना, अब बना! पैर फिसलते ही खड्ड के अंधकार में उसका अस्तित्व लोप हो जाएगा! इसीलिए अधिक रात बीतने पर रानीखेत में 'टार्च' का जुगनू-आलोक लेकर राहगीर निकलता है और फूँक-फूँककर पैर रखता है! सुनसान रात के अंधकार में यही पटवीजने बीच-बीच में चमककर विश्वास दिलाते हैं कि आदिम बर्बरता ने एकदम रानीखेत को डस नहीं लिया है और सभ्यता का आलोक अभी भी यहाँ टिमटिमा रहा है।

स्रोत :
  • पुस्तक : रेखाचित्र
  • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
  • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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