रामविलास शर्मा के उद्धरण

आध्यात्मिक भोजन के लिए भी भारत के लोग जिस दिन अंग्रेज़ी का मुँह देखेंगे, उस दिन उनके डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी काफ़ी होगा। अंग्रेज़ी सीखिए-सिखाइए लेकिन उसे विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम क्यों बनाते हैं?
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उर्दू में जो संस्कृत शब्दों से परहेज है, उसे कम होना है भारत की भाषाओं के लिए अरबी फ़ारसी का वही महत्त्व नहीं है जो संस्कृत का है। व्याकरण और मूल शब्द भंडार की दृष्टि से उर्दू संस्कृत परिवार की भाषा है, न कि अरबी परिवार की। इसलिए अरबी से पारिभाषिक शब्द लेने की नीति ग़लत है; केवल अरबी से शब्द लेने और संस्कृत शब्दों को मतरूक समझने की नीति और भी ग़लत है। भारत की सभी भाषाएँ प्रायः संस्कृत के आधार पर पारिभाषिक शब्दावली बनाती है। उर्दू इन सब भाषाओं से न्यारी रहकर अपनी उन्नति नहीं कर सकती
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जो लोग फ़ारसी के शब्दों को इस्लामी संस्कृति का अभिन्न अंग समझकर अपनी भाषा में सजाते हैं, वे अक्सर अनजान में क़ाफ़िर शब्दों को ही यह सम्मान देते हैं। जब वे हफ़्ते को उच्च शब्द और सप्त या सात को नीच शब्द समझते हैं तब वे यह सिद्ध करते हैं कि वे इस्लाम नहीं, ईरानी संस्कृति के ग़ुलाम हैं।
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यदि लोग इस बात को समझ लें कि उर्दू में जिन फ़ारसी-अरबी शब्दों के लिए उनका इतना आग्रह है, वे इस्लाम धर्म की विशेष सम्पति नहीं है, तो शायद वे भारत की अन्य भाषाओं की तरह उर्दू का विकास भी करें और हिंदी तथा संस्कृत शब्दों से इतना परहेज़ न करें।
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जब कोई विजित जाति अपनी भाषा के शब्दों को ठुकराए और विजेता की भाषा के व्यवहार पर गर्व करे, तो इसे ग़ुलामी का चिह्न मानना चाहिए।
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अँग्रेज़ी में कुछ सीखना एक बात है, अँग्रेज़ी को अपने सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यो का माध्यम बना लेना दूसरी बात है। जापानियों, चीनियों आदि ने अँग्रेज़ी से सीखा है, लेकिन अपनी भाषाओं के कद अविकसित मानकर उन्होंने अँग्रेज़ी को राजभाषा नहीं बनाया।
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