रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियाँ
काबुलीवाला
सहसा मेरी पाँच वर्ष की लाड़ली बेटी मिनी ‘अगड़म बगड़म’ का खेल छोड़कर खिड़की की तरफ़ भागी और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!” मैं इस समय उपन्यास लिख रहा था। नायक, नायिका को लेकर अँधेरी रात में जेल की ऊँची खिड़की से नीचे बहती नदी
काबुलीवाला
मेरी पाँच बरस की छोटी लड़की मिनी क्षण-भर भी बात किए बिना नहीं रह सकती। जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ़ एक ही साल लगाया होगा। उसके बाद जब तक वह जगी रहती है अपना एक मिनट का समय भी मौन में नष्ट नहीं करती। उसकी माँ अकसर डाँटकर उसका मुँह बंद कर
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere