केशवदास की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 3
बानी जू के बरन जुग सुबरनकन परमान।
सुकवि! सुमुख कुरुखेत परि हात सुमेर समान॥
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चरण धरत चिंता करत, नींद न भावत शोर।
सुबरण को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर॥
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राजत रंच न दोष युत कविता बनिता मित्र।
बुंदक हाला परत ज्यों गंगाघट अपवित्र॥
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