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श्री यमुना वंदना

shri yamuna vandna

यमुना प्रसाद चतुर्वेदी

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यमुना प्रसाद चतुर्वेदी

श्री यमुना वंदना

यमुना प्रसाद चतुर्वेदी

और अधिकयमुना प्रसाद चतुर्वेदी

    बंदों श्री पद पद्म बंधु तनया, स्यामा प्रिया स्याम की।

    कालिंदी कल कूल केलि सलिला, धारा-धरा धाम की।

    पूर्णानंद करी सदैव सुभगा, सारा सभी काम की।

    प्यारी ‘प्रीतम’ प्रान पुन्य फलदा, सोभा सु-विश्राम की॥

    जम फाँस की त्रास बिनास के बेग सदा तट बास कौ ही बर दै।

    कवि ‘प्रीतम’ पाप पहारन कों निज कूल कछारन में छर दै।

    भव बैभव भाग के भौनहि में स्व सुभाउ ते भामते ही भर दै।

    जमुने सुख बारिद की झर दै, अरु मो दुख दारिद कों दर दै॥

    भाखें जमराज सुनों सेबक हमारे सब

    काहू मानुस कों लाइबे कौ धर्म ना है रे

    ‘प्रीतम’ कवि जेते या जग माँहि पापी जन

    जमना नहाइ तिन्हें रहै भ्रम ना है रे

    या ही सों तुम सों बात खोलि कें कहत आज

    मेरी गम ना है तौ तिहारी गम ना है रे

    आस जमना है जाके, पास जाम ना है वहाँ

    बास जमना है तहाँ त्रास जम ना है रे

    निकट बसाइ जनु गोद में बिठाइ मन

    मोद में मढ़ाइ लियौ दारिद निकंदिनी

    कियौ है मुकुंद पद सेबक स्व्छंद पाइ

    मुकुन्द रति वर्द्धिनी अमित अनंदिनी

    चार फल दायिनी प्रदायिनी मनोरथ की

    तुम सी तुम्हीं हौ मातु सग-जग बंदिनी

    ‘प्रीतम’ सुकवि अघ बृंदन प्रभंजनी जु

    बंदों पद पद्म कालिंद गिरि नंदिनी

    रोग-हर, ताप-हर, दु:ख-हर, दया-कर

    दीन जान, आन मम गेह माँहि रहियै

    ‘प्रीतम’ सुकवि वाक-सिद्धि, बुद्धि-सुद्धि हेतु

    बैठि रसना पै, देवि! साँच-साँच कहियै

    बैभव की बृद्धि होइ, सुख में समृद्धि होइ

    दीजै बरदान मोहि जो जो जब चहियै

    लाज कौ जहाज़ आज बूढ़ौ जात-जाति मध्य

    तासों माँ उबारिबे कौं, बेगि बाँह गहियै

    [कवि के जीवन में एक विशेष घटना पर उद्भूत छंद]

    जमना जब नाम कढै मुख ते, सुनते तब पास रहै जम ना

    जम नाम राखत खातेन में, जिनके जिय आन बसी जमना

    जमना के प्रसाद भए कवि ‘प्रीतम’ गावत त्यों तब ते जु मना

    भज रे जमना, जप रे जमना, जित है जमना, तित है जम ना

    अब जो जनमों तो बसौं जमना तट, तनु मानुस कौ ही जु धारौं

    कवि ‘प्रीतम’ जू रसना सों सदा, रस नाम गुपालहि कौ सु उचारौं

    निरधारौं यही मन में इक आस प्रभो, ह्वै निरास ताहि बिसारौं

    जिति केलि कला तुम कीन्हीं, वही ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारौं

    हौं तो हौं जु टेरौ चेरौ, तेरौ ह्वै बन्यौ ही रहौं

    या ही आन-बान कौं सु धारियै श्री यमुने

    पातक अनेक एक आसरौ तिहारौ बड़ौ

    अडौ खडौ द्वार पै निबारियै श्री यमुने

    ‘प्रीतम’ मनोरथन पूरन करन बेगि

    ध्यान के धरत ही पधारियै श्री यमुने

    राज समाज के सु काज हित आज मेरे

    लाज के जहाज कौं सँभारियै श्री यमुने

    जुगन विताने सब जतन सिराने तब

    भागीरथ ठाने ब्रत माने सुख मंद ना

    ब्रह्म जब लाने केस संकर सुहाने पुनि

    धरा पै गिराने हेतु राखे कछु फंद ना

    पूर्वज तराने सुनि देव हरसाने पुन्य—

    पुंज सरसाने भए, अघ्घर अनंद ना

    ‘प्रीतम’ वौ कविंद ना सु छंदना अमंद ना

    जो नर गावत गौरि गंगा की वंदना

    अघ-घर=अघ्घर

    स्रोत :
    • रचनाकार : यमुना प्रसाद चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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