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जगमग सिय मंडप में मंगल मचि

jagmag siy mandap mein mangal machi

हरिहर प्रसाद

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हरिहर प्रसाद

जगमग सिय मंडप में मंगल मचि

हरिहर प्रसाद

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    जगमग सिय मंडप में मंगल मचि रह्यो।

    मंगल पुरुष आपुइ जनु इहाँ नचि रह्यो॥

    सोरह विधि शृंगार मदन मत में कहे।

    अनायास ते सिय अंगन में सजि रहे॥

    अंगन की उज्ज्वलता सों शृंगार है।

    नित नयो साजै ऐसो याको विचार है॥

    शृंग नाम अभिमान सो जामें नित्य बढ़।

    जेहि साजत अंगन में दूनो रंग चढ़॥

    आपुहि मह-मह महकत सिय जु को अंग है।

    गंध लगावनि हारि मनहिं में दंग है॥

    नीलकमल से सिय दृग आपुइ अंजि रहै।

    अंजन साजिन के मन तब लजि रजि रहै॥

    नित चिक्कन कच सिय के पिय के सनेह भरे।

    आलिन तेल लसावति मन संदेह परे॥

    सिय अधरन पर लाली मानहुँ पीक है।

    सखि कह पी कहुते यह लाली नीक है॥

    अधरन ओठन तर रहि होहु उदास हो।

    सोई ऊँचो जा में अमिय को बास हो॥

    सिय पाँयन की लाली लहलह लहकत है।

    नाउन लिये महावर लखि-लखि अहकत है॥

    सियतन पावन उज्ज्वल गंग तरंग से।

    तिनको मज्जन केवल जन की उमंग से॥

    आन यहि सम ताते आनन नाम है।

    सिय मुख ही में अर्थ बनत अभिराम है॥

    माया के सब तजे हंसनि में समाय रहे।

    राम से धीर पुरुष हू जामें लोभाय रहे॥

    राम धरे धनुबाण सुरति सिय भौंहन में।

    सूरति सिय जू के नयन रिसोहन में॥

    कानन में सिय जू के राम लोभाय रहे।

    लोग कहत गये कानन ते बउराय रहे॥

    देव नजरि जहँ हार तिनहँ का ताम की।

    चूक सुधारहिं सज्जन पतित गुलाम की॥

    झूलत रंग हिंडोरना दंपती भरे उमंग।

    मेरु शृंग राजत मनो घन दामिनि यक संग॥

    अवध बाग जस नंदन तहँ ऊँचो श्रीखंड।

    कनक हिंडोला तहँ पर्यो जामें कंचन दंड॥

    जगमग रत्न अनेकन बग-बग कंचन पीठ।

    नाद बिंदु मंडल लसै जहँ पहुँचत नहिं दीठ॥

    तापर सिय बर राजत जैसे दामिनि वंत।

    दोउ दिशि प्रेम झुलावत साजत सुरतइ कंत॥

    राग समय मंडल बंध्यो झरन लगे रस बुंद।

    रोम-रोम रस भीनत मिटे ताप दुख दुंद॥

    दोउ परस्पर अमिय से बनि रहे गर के हार।

    सुमनन की वरषा भई गरजन की बलिहार॥

    वह कंकण वह शिर पटा वह मोतिन की माल।

    इन्द्र धनुष मंडल बना पीतरित खरु लाल॥

    श्रवण पुनर्बसु चौकड़ा नित सावनहिं जनाव।

    देखि मोर मन हरषत पहुँची जड़ित जड़ाव॥

    या जोड़ी पर वारों अपने तन धन प्रान।

    पूरण मंडल मचि रह्यो बाजत देव निशान॥

    सांख्य योग वेदांत को छाँड़ि-छाँड़ि सब जंग।

    चरण शरण सिय ह्वै रहहु करि मन माँह उमंग॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रामभक्ति-साहित्य में मधुर उपासना (पृष्ठ 383-384)
    • संपादक : भुवनेश्वरनाथ मिश्र माधव
    • रचनाकार : हरिहर प्रसाद
    • प्रकाशन : बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना
    • संस्करण : 1975

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