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पिता के पत्र पुत्री के नाम (तरह–तरह की क़ौमें क्योंकर बनीं)

pita ke patr putri ke naam (tarah–tarah ki qaumen kyonkar banin)

जवाहरलाल नेहरू

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जवाहरलाल नेहरू

पिता के पत्र पुत्री के नाम (तरह–तरह की क़ौमें क्योंकर बनीं)

जवाहरलाल नेहरू

और अधिकजवाहरलाल नेहरू

    अपने पिछले ख़त में मैंने नए पत्थर के युग के आद‌मियों का ज़िक्र किया था जो ख़ासकर झीलों के बीच में मकानों में रहते थे। उन लोगों ने बहुत सी बातों में बड़ी तरक़्क़ी कर ली थी। उन्होंने खेती करने का तरीक़ा निकाला। वे खाना पकाना जानते थे और यह भी जानते थे कि जानवरों को पालकर कैसे काम लिया जा सकता है। ये बातें कई हज़ार वर्षों की पुरानी हैं और हमें उनका हाल बहुत कम मालूम है लेकिन शायद आज दुनिया में आद‌मियों की जितनी क़ौमें हैं उनमें से अक्सर उन्हीं नए पत्थर के युग के आद‌मियों की संतान हैं। यह तो तुम जानती ही हो कि आजकल दुनिया में गोरे, काले, पीले, भूरे सभी रंगों के आदमी हैं। लेकिन सच्ची बात तो यह है कि आदमियों की क़ौमों को इन्हीं चार हिस्सों में बाँट देना आसान नहीं है। क़ौमों में ऐसा मेलजोल हो गया है कि उनमें से बहुतों के बारे में यह बतलाना कि वह किस क़ौम में से हैं बहुत मुश्किल है। वैज्ञानिक लोग आद‌मियों के सिरों को नाप कर कभी-कभी उनकी क़ौम का पता लगा लेते हैं। और भी ऐसे कई तरीक़े हैं जिनसे इस बात का पता चल सकता है।

    अब सवाल यह होता है कि ये तरह-तरह की क़ौमें कैसे पैदा हुई? अगर सबकी सब एक ही क़ौम की हैं तो उनमें आज इतना फ़र्क़ क्यों है? जर्मन और हवशी में कितना फ़र्क़ है! एक गोरा है और दूसरा बिलकुल काला। जर्मन के चाल हलके रंग के और लंबे होते हैं मगर हवशी के बाल काले, छोटे और घुँघराले होते हैं। चीनी को देखो तो वह इन दोनों से अलग है। तो यह बतलाना बहुत मुश्किल है कि यह फ़र्क़ क्योंकर पैदा हो गया, हाँ इसके कुछ कारण हमें मालूम हैं। मैं तुम्हें पहले ही बतला चुका हूँ कि ज्यों-ज्यों जानवरों का रंग-ढंग आसपास की चीज़ों के मुताबिक होता गया उनमें धीरे-धीरे तब्दीलियाँ पैदा होती गईं। हो सकता है कि जर्मन और हवशी अलग-अलग क़ौमों से पैदा हुए हों लेकिन किसी किसी ज़माने में उनके पुरखे एक ही रहे होंगे। उनमें जो फ़र्क़ पैदा हुआ उसकी वजह या तो यह हो सकती है कि उन्हें अपना रहन-सहन अपने पास पड़ोस की चीज़ों के मुताबिक बनाना पड़ा या यह कि बाज जानवरों की तरह कुछ जातियों ने औरों से ज़्यादा आसानी के साथ अपना रहन-सहन बदल दिया हो।

    मैं तुमको इसकी एक मिसाल देता हूँ। जो आदमी उत्तर के ठंडे और बर्फ़ीले मुल्कों में रहता है उसमें सर्दी बर्दाश्त करने की ताक़त पैदा हो जाती है। इस ज़माने में भी इस्किमो जाति वाले उत्तर के बर्फ़ीले मैदानों में रहते हैं और वहाँ की भयानक सर्दी बर्दाश्त करते हैं। अगर वे हमारे जैसे गर्म मुल्क में आएँ तो शायद जीते ही रह सकें। और चूँकि वे दुनिया के और हिस्सों से अलग हैं और उन्हें बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उन्हें दुनिया की उतनी बातें नहीं मालूम हुईं जितनी और हिस्सों के रहने वाले जानते हैं। जो लोग अफ़्रीका में विषुवत् रेखा के पास रहते हैं, जहाँ बड़ी सख़्त गर्मी पड़ती है, इस गर्मी के आदी हो जाते हैं। इसी तेज़ धूप के सबब से उनका रंग काला हो जाता है। यह तो तुमने देखा ही है कि अगर तुम समुद्र के किनारे या कहीं और देर तक धूप में बैठो तो तुम्हारा चेहरा साँवला हो जाता है। अगर चंद हफ़्तों तक धूप खाने से आदमी कुछ काला पड़ जाता है तो वह आदमी कितना काला होगा जिसे हमेशा धूप ही में रहना पड़ता है। तो फिर जो लोग सैकड़ों वर्षों तक गर्म मुल्कों में रहें और वहाँ रहते उनकी कई पीढ़ियाँ गुज़र जाएँ उनके काले हो जाने में क्या ताज्जुब है। तुमने हिंदुस्तानी किसानों को दोपहरी की धूप में खेतों में काम करते देखा है। वे ग़रीबी की वजह से ज़्यादा कपड़े पहन सकते हैं, पहनते ही हैं। उनकी सारी देह धूप में खुली रहती है और इसी तरह उनकी पूरी उम्र गुज़र जाती है। फिर वे क्यों काले हो जाएँ।

    इससे तुम्हें यह मालूम हुआ कि आदमी का रंग उस आव-हवा की वजह से बदल जाता है जिसमें वह रहता है। रंग से आदमी की लियाकत, भलमनसी या ख़ूबसूरती पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर गोरा आदमी किसी गर्म मुल्क में बहुत दिनों तक रहे और धूप से बचने के लिए टट्टियों की आड़ में या पंखों के नीचे छिपा बैठा रहे, तो वह ज़रूर साँवला हो जाएगा। तुम्हें मालूम है कि हम लोग कश्मीरी हैं और दो सौ साल पहले हमारे पुरखे कश्मीर में रहते थे। कश्मीर में सभी आदमी, यहाँ तक कि किसान और मज़दूर भी, गोरे होते हैं। इसका यही सबब है कि कश्मीर की आव-हवा सर्द है। लेकिन वही कश्मीरी जब हिंदुस्तान के दूसरे हिस्सों में आते हैं, जहाँ ज़्यादा गर्मी पड़ती है, कई पुश्तों के बाद साँवले हो जाते हैं। हमारे बहुत से कश्मीरी भाई ख़ूब गोरे हैं और बहुत से बिलकुल साँवले भी हैं। कश्मीरी जितने ज़्यादा दिनों तक हिंदुस्तान के इस हिस्से में रहेगा उसका रंग उतना ही साँवला होगा।

    अब तुम समझ गईं कि आबहवा ही की वजह से आदमी का रंग बदल जाता है। यह हो सकता है कि कुछ लोग गर्म मुल्क में रहें लेकिन मालदार होने की वजह से उन्हें धूप में काम करना पड़े, वे बड़े-बड़े मकानों में रहें और अपने रंग को बचा सकें। अमीर ख़ानदान इस तरह कई पीढ़ियों तक अपने रंग को आव-हवा के असर से बचाए रख सकता है लेकिन अपने हाथों से काम करना और दूसरों की कमाई खाना ऐसी बात नहीं जिस पर हम गुरूर कर सकें। तुमने देखा है कि हिंदुस्तान में कश्मीर और पंजाब के आदमी आमतौर पर गोरे होते हैं लेकिन ज्यों-ज्यों हम दक्षिण जावें वे काले होते जाते हैं। मदरास और लंका में ये बिलकुल काले होते हैं। तुम ज़रूर ही समझ जाओगी कि इसका सबब आव-हवा है। क्योंकि दक्षिण की तरफ़ हम जितना ही बढ़ें हम विषुवत् रेखा के पास पहुँचते जाते हैं और गर्मी बढ़ती जाती है। यह बिलकुल ठीक है और यही एक ख़ास वजह है कि हिंदुस्तानियों के रंग में इतना फ़र्क़ है। हम आगे चल कर देखेंगे कि यह फ़र्क़ कुछ इस वजह से भी है कि शुरू में जो क़ौमें हिंदुस्तान में आकर बसी थीं उनमें आपस में फ़र्क़ था। पुराने ज़माने में हिंदुस्तान में बहुत सी क़ौमें आईं और हालाँकि बहुत दिनों तक उन्होंने अलग रहने की कोशिश की लेकिन वे आख़िर में बिना मिले रह सकीं। आज किसी हिंदुस्तानी के बारे में यह कहना मुश्किल है कि वह पूरी तरह से किसी एक असली क़ौम का है।

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