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पिता के पत्र पुत्री के नाम (भाषा, लिखावट और गिनती)

pita ke patr putri ke naam (bhasha, likhavat aur ginti)

जवाहरलाल नेहरू

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जवाहरलाल नेहरू

पिता के पत्र पुत्री के नाम (भाषा, लिखावट और गिनती)

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    हम तरह-तरह की भाषाओं का पहले ही ज़िक्र कर चुके हैं और दिखा चुके हैं कि उनका आपस में क्या नाता है। आज हम यह विचार करेंगे कि लोगों ने बोलना क्योंकर सीखा।

    हमें मालूम है कि जानवरों की भी कुछ बोलियाँ होती हैं। लोग कहते हैं कि बंदरों में थोड़ी सी मामूली चीज़ों के लिए शब्द या बोलियाँ मौजूद हैं। तुमने बाज़ जानवरों की अजीब आवाज़ें भी सुनी होंगी जो वे डर जाने पर और अपने भाई बंदों को किसी ख़तरे की ख़बर देने के लिए मुँह से निकालते हैं। शायद इसी तरह आदमियों में भी भाषा की शुरुआत हुई। शुरू में बहुत सीधी सादी आवाज़ें रही होंगी। जब वे किसी चीज़ को देखकर डर जाते होंगे और दूसरों को उसकी ख़बर देना चाहते होंगे तो वे एक ख़ास तरह की आवाज़ निकालते होंगे। शायद इसके बाद मज़दूरों की बोलियों शुरू हुईं। जब बहुत से आदमी एक साथ कोई काम करते हैं तो वे मिल कर एक तरह का शोर मचाते हैं। क्या तुमने आद‌मियों को कोई चीज़ खींचते या कोई भारी बोझ उठाते नहीं देखा है? ऐसा मालूम होता है कि एक साथ हाँक लगाने से उन्हें कुछ सहारा मिलता है। यही बोलियाँ पहले-पहल आदमी के मुँह से निकली होंगी।

    धीरे-धीरे और शब्द बनते गए होंगे—जैसे, पानी, आग, घोड़ा, भालू। पहले शायद सिर्फ़ नाम ही थे, क्रियाएँ थीं। अगर कोई आदमी यह कहना चाहता होगा कि मैंने भालू देखा है तो वह एक शब्द भालू कहता होगा और बच्चों की तरह भालू की तरफ़ इशारा करता होगा। उस वक़्त लोगों में बहुत कम बातचीत होती होगी।

    धीरे-धीरे भाषा तरक़्की करने लगी। पहले छोटे-छोटे जुमले पैदा हुए, फिर बड़े-चड़े। किसी ज़माने में भी शायद सभी जातियों की एक ही भाषा थी। लेकिन कोई ज़माना ऐसा ज़रूर था जब बहुत सी तरह-तरह की भाषाएँ थीं। मैं तुम से कह चुका हूँ कि तब थोड़ी सी भाषाएँ थीं। मगर बाद को, उन्हीं में से हर-एक की कई-कई शाखें पैदा हो गई।

    सभ्यता शुरू होने के ज़माने तक, जिसका हम ज़िक्र कर रहे हैं भाषा ने बहुत तरक़्क़ी कर ली थी। बहुत से गीत बन गए थे और भाट और गवैये उन्हें गाते थे। उस ज़माने में लिखने का बहुत रिवाज था और बहुत किताबें थीं। इसलिए लोगों को अब से कहीं ज़्यादा बातें याद रखनी पड़ती थीं। तुकबंदियों और छंदों को याद रखना ज़्यादा सहल है। यही सबब है कि उन मुल्कों में जहाँ पुराने ज़माने में सभ्यता फैली हुई थी, तुकबंदियों और लड़ाई के गीतों का बहुत रिवाज था।

    भाटों और गवैये को मरे हुए वीरों की बहादुरी के गीत बहुत अच्छे लगते थे। उस ज़माने में आदमी की ज़िंदगी का ख़ास काम लड़ना था, इसलिए उनके गीत भी लड़ाइयों ही के हैं। हिंदुस्तान ही नहीं, दूसरे मुल्कों में भी, यही रिवाज था।

    लिखने की शुरुआत भी बहुत मज़ेदार है। मैं चीनी लिखावट का बयान कर चुका हूँ। सभी मुल्कों में लिखना तस्वीरों से शुरू हुआ होगा। जो आदमी मोर के बारे में कुछ कहना चाहता होगा, उसे मोर की तस्वीर या खाका बनाना पड़ता होगा। हाँ, इस तरह कोई बहुत ज़्यादा लिख सकता होगा। धीरे-धीरे तस्वीरें सिर्फ़ निशानियाँ रह गई होंगी। इसके बहुत दिनों पीछे वर्णमाला निकली होगी और उसका रिवाज हुआ होगा। इससे लिखना बहुत सहल हो गया और जल्दी-जल्दी तरक़्क़ी होने लगी।

    अदद और गिनती का निकलना भी बड़े मार्के की बात रही होगी। गिनती के बग़ैर कोई रोज़गार करने का ख़याल भी नहीं किया जा सकता। जिस आदमी ने गिनती निकाली वह बड़े दिमाग़ का या बहुत होशियार आदमी रहा होगा। यूरोप में पहले अंक बहुत बेढंगे थे। रोमन अंकों को तुम जानती हो I, II, III, IV, V, VI, VII, VIII, IX, X, इत्यादि। ये बहुत बेढंगे हैं और इन्हें काम में लाना मुश्किल है। आजकल हम, हरेक भाषा में, जिन अंकों को काम में लाते हैं वे बहुत अच्छे हैं। मैं 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 वग़ैरा अंकों को कह रहा हूँ। इन्हें अरबी अंक कहते हैं क्योंकि यूरोप वालों ने उन्हें अरब जाति से सीखा। लेकिन अरब वालों ने उन्हें हिंदुस्तानियों से सीखा था। इसलिए उन्हें हिंदुस्तानी अंक कहना ज़्यादा मुनासिब होगा।

    लेकिन मैं तो सरपट दौड़ा जा रहा हूँ। अभी हम अरब जाति तक नहीं पहुँचे हैं।

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