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पिता के पत्र पुत्री के नाम (जानवर कब पैदा हुए)

pita ke patr putri ke naam (janvar kab paida hue)

जवाहरलाल नेहरू

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पिता के पत्र पुत्री के नाम (जानवर कब पैदा हुए)

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    हम बतला चुके हैं कि शुरू में छोटे-छोटे समुद्री जानवर और पानी में होने वाले पौधे दुनिया की जानदार चीज़ों में थे। वे सिर्फ़ पानी में ही रह सकते थे और अगर किसी वजह से बाहर निकल आते और उन्हें पानी मिलता तो ज़रूर मर जाते होंगे। जैसे आज भी मछलियाँ सूखे में आने से मर जाती हैं। लेकिन उस ज़माने में आजकल से कहीं ज़्यादा समुद्र और दलदल रहे होंगे। वे मछलियाँ और दूसरे पानी के जानवर जिनकी खाल ज़रा चिमड़ी थी, सूखी ज़मीन पर दूसरों से कुछ ज़्यादा देर तक जी सकते होंगे। क्योंकि उन्हें सूखने में देर लगती थी। इसलिए नर्म मछलियाँ और उन्हीं की तरह के दूसरे जानवर धीरे-धीरे कम होते गए क्योंकि सूखी ज़मीन पर ज़िंदा रहना उनके लिए मुश्किल था और जिनकी खाल ज़्यादा सख़्त थी वे चढ़ते गए। सोचो कितनी अजीब बात है! इसका यह मतलब है कि जानवर धीरे-धीरे अपने को आसपास की चीज़ों के अनुकूल बना लेते हैं। तुमने लंदन के अजायबघर में देखा था कि जाड़ों में और ठंडे देशों में जहाँ कसरत से बर्फ़ गिरती है चिड़ियाँ और जानवर बर्फ़ की तरह सुफ़ेद हो जाते हैं। गर्म देशों में जहाँ हरियाली और दरख़्तों की कसरत होती है वे हरे या किसी दूसरे चमकदार रंग के हो जाते हैं। इसका यह मतलब है कि वे अपने को उसी तरह का बना लेते हैं जैसी उनके आसपास की चीज़ें हों। उनका रंग इसलिए बदल जाता है कि वे अपने को दुश्मनों से बचा सकें, क्योंकि अगर उनका रंग आसपास की चीज़ों से मिल जाए तो वे आसानी से दिखाई देंगे। सर्द मुल्कों में उनकी खाल पर बाल निकल आते हैं जिससे वे गर्म रह सकें। इसीलिए चीते का रंग पीला और धारीदार होता है, उस धूप की तरह जो दरख़्तों से हो कर जंगल में आती है। वह घने जंगल में मुश्किल से दिखाई देता है।

    इस अजीब बात का जानना बहुत ज़रूरी है कि जानवर अपने रंग ढंग को आसपास की चीज़ों से मिला देते हैं। यह बात नहीं है कि जानवर अपने को बदलने की कोशिश करते हों; लेकिन जो अपने को बदल कर आसपास की चीज़ों से मिला देते हैं उनका ज़िंदा रहना ज़्यादा आसान हो जाता है। उनकी तादाद बढ़ने लगती है, दूसरों की नहीं बढ़ती। इससे बहुत सी बातें समझ में जाती हैं। इससे यह मालूम हो जाता है कि नीचे दर्जे के जानवर धीरे-धीरे ऊँचे दर्जों में पहुँचते हैं और मुमकिन है कि लाखों बरसों के बाद आदमी हो जाते हैं।

    हम ये तब्दीलियाँ, जो हमारे चारों तरफ़ होती रहती हैं, देख नहीं सकते, क्योंकि वे बहुत धीरे-धीरे होती हैं और हमारी ज़िंदगी कम होती है। लेकिन प्रकृति अपना काम करती रहती है और चीज़ों को बदलती और सुधारती रहती है। वह तो कभी रुकती है और आराम करती है।

    तुम्हें याद है कि दुनिया धीरे-धीरे ठंडी हो रही थी और इसका पानी सूखता जाता था। जब यह ज़्यादा ठंडी हो गई तो जलवायु बदल गया और उसके साथ ही और भी बहुत सी बातें बदल गईं। ज्यों-ज्यों दुनिया बदलती गई जानवर भी बदलते गए और नए-नए क़िस्म के जानवर पैदा होते गए। पहले नीचे दर्जे के दरियाई जानवर पैदा हुए, फिर ज़्यादा ऊँचे दर्जे के। इसके बाद जब सूखी ज़मीन ज़्यादा हो गई तो ऐसे जानवर पैदा हुए जो पानी और ज़मीन दोनों ही पर रह सकते हैं जैसे, मगर या मेंढक। इसके बाद वे जानवर पैदा हुए जो सिर्फ़ ज़मीन पर रह सकते हैं और तब हवा में उड़ने वाली चिड़ियाँ आई।

    मैंने मेंढक का ज़िक्र किया है। इस अजीब जानवर की ज़िंदगी से बड़ी-बड़ी मज़े की बातें मालूम होती हैं। साफ़ समझ में जाता है कि दरियाई जानवर बदलते-बदलते क्योंकर ज़मीन के जानवर बन गए। मेंढक पहले मछली होता है, लेकिन बाद को वह खुश्की का जानवर हो जाता है और दूसरे खुश्की के जानवरों की तरह फेफड़े से साँस लेता है। उस पुराने ज़माने में जब खुश्की के जानवर पैदा हुए बड़े-बड़े जंगल थे। ज़मीन सारी की सारी झावर रही होगी, उसपर घने जंगल होंगे। आगे चलकर ये चट्टान और मिट्टी के बोझ से ऐसे दब गए कि वह धीरे-धीरे कोयला बन गए। तुम्हें मालूम है कोयला गहरी ख़ानों से निकलता है, ये ख़ानें असल में पुराने ज़माने के जंगल हैं।

    शुरू-शुरू में ज़मीन के जानवरों में बड़े-बड़े साँप, छिपकलियाँ और घड़ियाल थे। इनमें से बाज़ 100 फ़ीट लंबे थे। 100 फ़ीट लंबे साँप या छिपकली का ज़रा ध्यान तो करो! तुम्हें याद होगा कि तुमने इन जानवरों की हड्डियाँ लंदन के अजायबघर में देखी थीं।

    इसके बाद वे जानवर पैदा हुए जो कुछ-कुछ हाल के जानवरों से मिलते थे। ये अपने बच्चों को दूध पिलाते थे। पहले वे भी आजकल के जानवरों से बहुत बड़े होते थे। जो जानवर आदमी से बहुत मिलता-जुलता है वह बंदर या वनमानुष है। इससे लोग ख़याल करते हैं कि आदमी वनमानुष की नस्ल है। इसका यह मतलब है कि जैसे और जानवरों ने अपने को आसपास की चीज़ों के अनुकूल बना लिया और तरक़्क़ी करते गए इसी तरह आदमी भी पहले एक ऊँचे क़िस्म का वनमानुष था। यह सच है कि यह तरक़्क़ी करता गया या यों कहो कि प्रकृति उसे सुधारती रही। पर आज उसके घमंड का ठिकाना नहीं। वह ख़याल करता है कि और जानवरों से उसका मुकाब़िला ही क्या। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हम बंदरों और वनमानुषों के भाईबंद हैं और आज भी शायद हममें से बहुतेरों का स्वभाव बंदरों ही जैसा है।

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