रण-निमंत्रण

ran nimantran

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

रण-निमंत्रण

मैथिलीशरण गुप्त

कौरव तथा पांडव परस्पर विजय की आशा किए,

होने लगे जब प्रकट प्रस्तुत युद्ध करने के लिए।

उस समय निज-निज पक्ष के राजा बुलाने को वहाँ,

भेजे गए युग पक्ष से ही दक्ष दूत जहाँ-तहाँ॥

फिर शीघ्र ही श्रीकृष्ण को निज ओर करने युद्ध में,

देने उन्हें रण का निमंत्रण निज-विपक्ष-विरुद्ध में।

लेने तथा साहाय्य उनसे और सर्व-प्रकार का,

दैवात् सुयोधन और अर्जुन संग पहुँचे द्वारका॥

उस समय सुंदर सेज ऊपर सो रहे भगवान थे,

गंभीर नीरव शांत सुस्थिर सिंधुसम छविमान थे।

ओढ़े मनोहर पीतपट अति भव्य रूप निधान थे,

प्रत्यूष-आतप-सहित शुचि यमुना-सलिल-उपमान थे॥

मुकुलित विलोचन युग्म उनके इस प्रकार ललाम थे,

भीतर मधुप मूँदे हुए ज्यों सुप्त सरसिजल श्याम थे।

कच-गुच्छ मुखमंडल सहित यों सोहते अभिराम थे,

घेरे हुए ज्यों सूर्य को घन सघन शोभा धाम थे॥

नीलारविंद समान तनु की अति मनोहर कांति से,

शुचि हार-मुक्ता दीखते थे नीलमणि ज्यों भ्रांति से।

थे चिह्न कंधों में विविध यों कुंडलों के सोहते,

मन्मथ-लिखित मानो वशीकर मंत्र थे मन मोहते॥

नि:श्वास नैसर्गिक सुरभि यों फैल उनकी थी रही,

ज्यों सुकृति-कीर्ति गुणी जनों की फैलती है लहलही।

सुकपोल करतल पर ललित यों दर्शनीय विशेष था,

मृदु-नवल-पल्लव-सेज पर ज्यों पड़ा नक्षत्रेश था॥

शय्या-वसन-संघर्ष से जो हो रहे अति क्षीण थे,

उन अंगरागों से रुचिर यों अंग उनके पीन थे।

ज्यों शरद ऋतु में धवल घन के विरल खंडों से सदा,

होती सुनिर्मल नील नभ की छवि-छटा मोद प्रदा॥

था शयन-पाटांबर अरुण, झालर लगी जिसमें हरी;

उस पर तनिक तिरछे पड़े थे पीतपट ओढ़े हरी।

वह दिव्य शोभा देख करके ज्ञात होता था यही—

मानों पुरंदर-चाप सुंदर कर रहा शोभित मही॥

ऐसे समय में शीघ्रता से पहुँच दुर्योधन वहाँ,

श्रीकृष्ण के सिर ओर बैठा रुचिर आसन था जहाँ।

कुछ देर पीछे फिर वहाँ आकर बिना ही कुछ कहे,

हरि के पदों की ओर अर्जुन नम्रता से स्थित रहे॥

उस काल उन दोनों सहित शोभित हुए अति विष्णु यों,

कंदर्प और वसंत-सेवित सो रहे हों जिष्णु ज्यों।

फिर एक दूजे को परस्पर तुच्छ मन में लेखते,

हरि जागरण की बाट दोनों रहे ज्यों-त्यों देखते॥

उस समय दोनों के हृदय में भाव बहु उठने लगे,

पर कह सके कुछ भी वे जब तक पुरुषोत्तम जगे।

दो ओर से आते हुए युग जल-प्रवाह बहे-बहे,

मानो मनोरम शैल से हों बीच ही मैं रुक रहे॥

कुछ देर में जब भक्तवत्सल देवकीनंदन जगे,

तब देख अर्जुन को प्रथम बोले वचन प्रियता-पगे।

है कुशल तो सब भाँति भारत! आज भूल पड़े कहाँ?

जो कार्य मेरे योग्य हो प्रस्तुत सदा मैं हूँ यहाँ॥

कहते हुए यों सेज पर निज पूर्व तनु के भाग से,

पर्यंक-तकिए के सहारे बैठ कर अनुराग से।

सब जान कर भी पार्थ को निज वचन कहने के लिए,

दृग-कमल उनकी ओर हरि ने मुदित हो प्रेरित किए॥

तब देख उनकी ओर हँस कर कुछ विचित्र विनोद से,

निज सिर झुकाते हुए उनको नम्र होकर मोद से।

करते हुए कुरुनाथ का मुख-तेज निष्प्रभ-सा तथा,

यों कह सुनाई पार्थ ने संक्षेप में अपनी कथा—॥

“होते सुलभ सुख-भोग जिससे भागते भव-रोग हैं,

सो कृपा जिन पर आपकी सकुशल सदा हम लोग हैं।

संप्रति समर-साहाय्य-हित, कर विनय, सुख पाकर महा,

मैं हुआ देने ‘रण-निमंत्रण’ प्राप्त सेवा में यहाँ॥”

कर्तव्य ही कुरुनाथ अपना सोचता जब तक रहा,

कर लिया तब पार्थ ने यों कार्य निज ऊपर कहा।

यह शीघ्र घटना देख कर अति चकित-सा वह रह गया,

सब गर्व उसका उस समय नैराश्य-नद में बह गया॥

धिक्कार तब देता हुआ वह प्रथम आने के लिए,

मन के विकारों को किसी विध रोक कर अपने हिए।

श्रीकृष्ण से मिल कर तथा पाकर उचित सत्कार को,

कहने लगा इस भाँति उनसे त्याग सोच-विचार को॥

“आया प्रथम गोविंद! हूँ मैं आपके शुभ धाम में,

अतएव मुझको दीजिए साहाय्य इस संग्राम में।

मैं और अर्जुन आपको दोनों सदैव समान हैं,

पर प्रथम आए को अधिकतर मानते मतिमान हैं।”

श्रीकृष्ण बोले —“कहे तुमने उचित वचन विवेक से,

तुम और पांडव हैं हमें दोनों सदा ही एक से।

तब प्रथम आने के वचन भी सब प्रकार यथार्थ हैं,

पर प्रथम दृग्गोचर हुए मुझको यहाँ पर पार्थ हैं॥

जो हो, करूँगा युद्ध मैं साहाय्य दोनों ओर मैं,

पालन करूँगा यह किसी विध आत्मकर्म कठोर मैं।

दस कोटि निज सेना करूँगा एक ओर सशस्त्र मैं,

केवल अकेला ही रहूँगा एक ओर निरस्त्र मैं॥

दो भाग निज साहाय्य के इस भाँति हैं मैंने किए,

स्वीकार तुम दोनों करो, हो जो जिसे रुचिकर हिए।

रण-खेत में निज ओर से सेना लड़ेगी सब कहीं,

पर युद्ध की है बात क्या, मैं शस्त्र भी लूँगा नहीं॥”

सुन कर वचन यों पार्थ ने स्वीकार श्रीहरि को किया,

कुरुनाथ ने नारायणी दश कोटि सेना को लिया।

तब पार्थ से हँस कर वचन कहने लगे भगवान यों—

“स्वीकृत मुझे तुमने किया है त्याग सैन्य महान क्यों?”

गंभीर होकर पार्थ ने तब यह उचित उत्तर दिया—

“था चाहिए करना मुझे जो, है वही मैंने किया।

है सैन्य क्या, मुझको जगत भी तुम बिना स्वीकृत नहीं,

श्रीकृष्ण रहते हैं जहाँ सब सिद्धियाँ रहती वहीं॥”

स्रोत :
  • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 128)
  • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
  • संस्करण : 1994
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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