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तपति उसास औधि रूँधियै कहाँ लौं दैया

tapati usas audhi rundhiyai kahan laun daiya

घनानंद

अन्य

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घनानंद

तपति उसास औधि रूँधियै कहाँ लौं दैया

घनानंद

और अधिकघनानंद

    तपति उसास औधि रूँधियै कहाँ लौं दैया,

    बात बूझें सैननि हो उतर उचारियै।

    उड़ि चल्यौ रंग कैसें राखियै कलंकी मुख,

    अनलेखें कहाँ लौं घूँघट उघारियै।

    जरि बरि छार ह्वै जाय हाय ऐसी वैसि,

    चित चढ़ी मूरति सुजान क्यौं उतारियै।

    कठिन कुदायै आय घिरी हौं अनंदघन,

    रावर बसाय तौ बसाय उजारियै॥

    हे प्रिय, उसाँसें तक तप्त होकर बाहर निकल रही हैं। हाय दैव, भला अवधि के भरोसे कब तक प्राणों को रोका जाए। शरीर इतना अधिक क्षीण हो गया है कि बोला भी नहीं जाता। कोई प्रश्न पूछने पर उसका उत्तर संकेत से ही बोलकर दे पाती हूँ। शरीर का रंग तक उड़ गया है। उसमें जो यह श्यामता कलंक बनकर गई है इसे छुपाने के लिए किस सीमा तक घूँघट में मुख छिपाए रखा जाए! मेरा यह भरा-पूरा यौवन वियोग की इस भीषण आग में जल-जलकर ख़ाक ही क्यों हो जाए। प्रिय की जो मूर्ति हृदय में बस गई है वह वहाँ से हटाई नहीं जा सकती। इस प्रकार हे आनंद के घन, कठिन कुअवसर से घिर गई हूँ। आपसे प्रार्थना है कि यदि आपका वश चलता हो तो आपने मुझ दुखिया को अपने प्रेमदान द्वारा जैसे बसाया था (सुखी बनाया था) वैसे ही बसाए रखने का प्रयास कीजिए, स्वयं ही उजाड़िए मत।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 204)
    • संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
    • रचनाकार : घनानंद
    • प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
    • संस्करण : 1972

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