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'कीजै कहा जीजी जू!' सुमित्रा परि पायँ कहै

kijai kaha jiji joo! sumitra pari payan kahai

तुलसीदास

तुलसीदास

'कीजै कहा जीजी जू!' सुमित्रा परि पायँ कहै

तुलसीदास

'कीजै कहा जीजी जू!' सुमित्रा परि पायँ कहै,

तुलसी सहावै बिधि सोई सहियुत है।

रावरो सुभाव रामजन्म ही तें जानियतु,

भरत की मातु को कि ऐसो चहियतु है?

जाई राजघर, ब्याहि आई राज घर माँह,

राजपूत पाए हूँ सुख लहियतु है।

देह सुधागेह ताहि मृगहू मलीन कियो,

ताहु पर बाहु बिनु राहु गहियतु है॥

सुमित्रा कौशल्या के पैरों पर गिरकर कहती हैं कि हे बहन, क्या किया जाए, जो ब्रह्मा सहावे उसे सहना ही पड़ेगा। आपका स्वभाव तो इसी से प्रकट होता है कि राम सरीखा पुत्र आपके पेट से पैदा हुआ है। क्या भरत की माँ को ऐसा करना चाहिए था? आप राजा के घर में पैदा हुईं, राजा के घर में ब्याह कर आईं, आपको राजपुत्र भी मिला, किंतु इतने पर भी आपको सुख नहीं मिल रहा है। चंद्रमा का शरीर अमृत का घर है किंतु उसे मृग ने कलंकित किया है; उस पर भी बिना हाथों वाला राहु उसे ग्रसता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : कवितावली (पृष्ठ 26)
  • संपादक : देवीनारायण द्विवेदी
  • रचनाकार : तुलसीदास
  • प्रकाशन : एस.बी.सिंह, काशी-पुस्तक-भंंडार, बनारस
  • संस्करण : 1999

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