Font by Mehr Nastaliq Web

सीत रितु भीत भई छाती राती ताती तई

seet ritu bheet bhai chhati rati tati tai

आलम

अन्य

अन्य

आलम

सीत रितु भीत भई छाती राती ताती तई

आलम

सीत रितु भीत भई छाती राती ताती तई,

ऐसे ताप, तिय तन तये हैं तबैंगे।

‘आलम’ अनिल इतराय कै कलिन मिलि,

दीन्हो है कलेस सुधि आये दूनो दवैंगे।

ग्रीषम ते ऊषम है विषम अषाढ़ ऊधौ,

माधो जौ आये मन भ्रमर क्यों भवैंगे।

बधिवे को बूँदनि बियोगिनि को बीनि बीनि,

आये बैरी बादर बिसासी बिस बवैंगे॥

गोपियाँ उद्धव से अपनी विरह-व्यथा प्रकट कर कहती हैं कि शीत ऋतु की तीव्रता से हम डर गई हैं और गर्मी के ताप से तपकर छाती गर्म हो गई है। इस ताप से संतप्त रहते हुए स्त्रियों के शरीर नहीं बचेंगे। इस पर भी हवा इठला कर बह रही है। वह कलियों को छूकर उनकी सुगंध से भर गई है, जिसके स्पर्श से हमें प्रियतम कृष्ण की और अधिक याद आती है। हमारा शरीर अधिक जलने लगता है तथा पीड़ा अधिक बढ़ जाती है। हे उद्धव! यह आषाढ़ का महीना तो ग्रीष्म ऋतु से भी अधिक तप्त है—पीड़ादायक है। अब यदि कृष्ण आए तो हम भौंरे की तरह इधर-उधर घूमने लगेंगी—बावली की तरह भटकने लगेंगी। ये विश्वासघाती बादल उमड़ आए हैं। ये अब हमारा वध करने को—हम वियोगिनियों को पीड़ाएँ देने के लिए अपनी बूँदों के बाण मारेंगे। इस प्रकार ये हमारे लिए ज़हर बोएँगे, ज़हर की जलन जैसी ही पीड़ा हमारे मन में फैल जाएगी।

स्रोत :
  • पुस्तक : आलम ग्रंथावली (पृष्ठ 79)
  • संपादक : विद्यानिवास मिश्र
  • रचनाकार : आलम
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2015

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY