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विकास-कथा

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रमेश ऋतंभर

रमेश ऋतंभर

विकास-कथा

रमेश ऋतंभर

एक क़स्बे में रहते थे पाँच कवि-किशोर

एक जो सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए

ख़ूब बहसें किया करता था

पढ़ाई ख़त्म करते ही चला गया दिल्ली

पकड़ ली एक छोटी-सी नौकरी

वहीं से कभी-कभी लिखता है चिट्ठी

कि कई मोर्चों पर जीतने वाला आदमी

कैसे एक भूख के आगे हार जाता है

जताता है उम्मीद

कि एक दिन लौटेगा वह ज़रूर

अपनी कविताओं के घर।

दूसरा जो फ़र्राटेदार अँग्रेज़ी बोलने के कारण

कॉलेज की लड़के-लड़कियों के बीच लोकप्रिय था

पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षाएँ देते-देते

हार कर बन गया

एक देशी दवा कंपनी का विक्रय-प्रतिनिधि

आजकल कंपनी का बिक्री-लक्ष्य पूरा करने के लिए

वह अस्पतालों, डॉक्टरों, केमिस्टों के यहाँ

भारी बैग लेकर चक्कर लगाता फिरता है

पिछले दिनों आया था घर

दिखा रहा था अपनी हथेलियों के ठेले

कह रहा था 'रमेश जीवन बड़ा कठिन है'।

तीसरा जो दोस्तों से घिरा अक्सर गप्पे मारा करता था

और बात-बात में बाज़ी लगाया करता था

बी.ए.के बाद बेकारी से घबरा कर उसने

खोल लिया टेलीफ़ोन बूथ

आजकल वह जिला व्यवहार न्यायालय में

हो गया है सहायक

और कविताएँ लिखना छोड़ ख़ूनियों-अपराधियों की

ज़मानत की पैरवी करता फिरता है।

चौथा जो जहाँ भी कुछ ग़लत होता देखता

तुरंत आवाज़ उठाता था

और कविताओं के साथ-साथ अख़बारों में

ज्वलंत मुद्दों पर लेख लिखा करता था

उसने खोल लिया एक छोटा-मोटा प्रेस

और हो गया क्षेत्रीय अख़बार का स्थानीय संवाददाता

आजकल मुर्ग़े की टाँग और दारू की बोतल पर

ख़बरों का महत्त्व तय करता है।

पाँचवाँ जो किताबों की दुनिया में खोया

क्रांति के सपने देखा करता था

हो गया क़स्बे के एक छोटे कॉलेज में हिंदी का लेक्चरर

वह अपनी सीमित तनख़्वाह में

घर-परिवार पेशे की ज़रूरतों के बीच

महीना-भर खींचतान करता रहता है

और अपने को ज़िंदा रखे रहने के लिए

कभी-कभी कविताएँ लिख लेता है

आजकल वह भी सोच रहा है

कि वह खोल ले कोई दूकान

या बन जाए किसी का दलाल।

स्रोत :
  • रचनाकार : रमेश ऋतंभर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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